________________
पता द्वार. - २०
रत्नमाला
पृष्ठ 5. -92
रात्रि भोजन त्याग का फल छत्र चामर वाजीभ रथ पदाति संयुताः । विराजन्ते नरा यत्र ते रात्र्याहारवर्जिनः ||४९. अन्वयार्थ : यत्र
जहाँ
छन्त्र चामर
चामर वाजी
घोड़ा हाथी
रथ पदाति
पदातियों से संयुताः
संयुक्त नराः
नर विराजन्ते रहते हैं
इभ
रथ
रात्र्याहार
रात्रि भोजन के वर्जिनः
त्यागी थे। अर्थ : छत्र, चंवर, घोड़ा, हाथी, रथ एवं पदातियों से युक्त नर जहाँ कहीं भी दिखाई पड़ते हैं, समझना चाहिये कि इन्होंने पूर्व भव में रात्रि भोजन का त्याग किया था।
भावार्थ : भोजन के चार भेद हैं - खाद्य-स्वाद्य-लेह्य और पेय। खाद्य : खाने योग्य पदार्थ खाद्य हैं। यथा - रोटी, भात, कचौड़ी, पूड़ी आदि। स्वाध : स्वाद लेने योग्य पदार्थ, स्वाद्य हैं। यथा - चूर्ण, ताम्बूल. सुपारी आदि। लेह : चाटने योग्य पदार्थ, लेा है। यथा - रबड़ी, मलाई, चटनी आदि। पेय : पीने योग्य पदार्थ, पेय है। यथा - पानी. दूध, शरबत आदि।
रात्रिकाल में चारों प्रकार के आहार का पूर्ण त्याग करना, रात्रिभोजन त्याग नामक व्रत है। रात्रि भोजन त्यागी को भोजन का त्याग कब करना चाहिये? यह बताते हुए | आ, पूज्यपाद कहते हैं कि :
दिवसस्याष्टमे भागे मन्दीभूते दिवाकरे । नक्तं तं प्राहराचार्या न नक्तं रात्रिभोजनम् ।।
(पूज्यपाद श्रावकाचार - ९४) अर्थ : दिन के आठवें भाग में सूर्य के मन्द प्रकाश के हो जाने पर अवशिष्ट काल को आचार्य गण "नक्त (रात्रि) कहते हैं। केवल रात्रि में भोजन करने को ही नक्त भोजन नहीं
सुविधि झाल पत्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद,