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रत्नमाला
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पृत स... -122
जो
श्रीमान
श्रीमान्
नित्यम्
द्वा. - २० हा.. -२० रत्नमाला
अन्तिम मंगल यो नित्यं पठति श्रीमान् रत्नमालामिमां परम् ।
स शुद्ध - भावनोपेतः शिवकोटित्वमाप्नुयात् ।। ६७. अन्वयार्थ : यः
ज्ञातव्य है कि
श्रावकाचार नित्य
संग्रह में परम और शुद्ध भावना
शुद्ध भावना से
शुद्ध भावनोपेतः की उपेतः
युक्त होकर
जगह पराम् और इमाम्
इस
भावनोनूनं छपा है। पराम्
श्रेष्ठ रत्नमालाम्
रत्नमाला को पठति
पढ़ता है सः
वह शिवकोटित्वम् शिवकोटित्व को आप्नुयात्
प्राप्त करता है।
अर्थ : जो भव्य इस रत्नमाला को शुद्ध भावना से युक्त होकर पढ़ता है, वह भव्य | शिवकोटित्व को प्राप्त कर लेता है।
| भावार्थ : इस श्लोक के माध्यम से ग्रंथकार ने ग्रंथ का उपसंहार किया है। तथा ग्रंथ । | व ग्रंथकार का नाम प्रकट किया है।
ग्रंथकार कहते हैं "जो इस रत्नमाला को पढ़ते हैं, वे शिवकोटि को प्राप्त करते हैं।
यहाँ रत्नमाला शब्द के दो अर्थ हैं। १) प्रस्तुत ग्रंथ का नाम तथा २) सम्यग्दर्शन ज्ञान ! और चारित्र रूप रत्नों की माला। ___शिवकोटि ग्रंथकार का नाम है - परन्तु यहाँ वह अनेक अर्थों को धोतित करता है। यथा - शिव : मंगल, मोक्ष, कल्याण, सौभाग्यशाली और सफल आदि।
कोटि : करोड़ चरम सीमा का किनारा, पराकाष्ठा और प्रेणी आदि, इस से शिवकोटि | के अर्थ हुए -
१. जिस ने करोड़ों कल्याणों को प्राप्त कर लिया है। २. जो सौभाग्यशालियों की श्रेणी में विराजित है।
सुविधि शान चन्द्रिका प्रकाशठा संस्था, औरंगाबाद.