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गृष्ठ
1. - 98
नित्य
नैमित्तिकाः
पा . - २० रत्नमाना
नित्य -नैमित्तिक क्रिया नित्य नैमित्तिकाः कार्याः क्रियाः श्रेयोऽर्थिना मुदा।
ताभिर्गुढ-मनस्को यत् पुण्य-पण्य-समाश्रयः ।। ५२, अन्वयार्थ : श्रेयः
श्रेय के अर्थिनाम
इच्छुक को मुदा
हर्ष पूर्वक नित्य और
नैमित्तिक क्रिया
क्रियायें कार्याः
करनी चाहिये यत ताभिः
उन के द्वारा गूढ़मनस्कः
मन को गूद करता है (वह) पण्य
महा पुण्य
पुण्य का समाश्रयः
आश्रय स्थान बनता है। अर्थ : जो श्रेयार्थी हर्षपूर्वक नित्य और नैमित्तिक क्रियायें करता है. उस के द्वारा मन रोका जाता है और वह पुण्य को प्राप्त करता है।
भावार्थ : जैन धर्म में पूज्य पुरुषों की आराधना पूज्यता की प्राप्ति के लिए की जाती है , इन के अलावा कोई लौकिक प्रयोजन जैनधर्म को इष्ट नहीं है।
जो क्रियाएं प्रतिदिन की जाती हैं, वे नित्य क्रियाएं हैं। जो क्रियाएं किसी विशेष अवसर पर की जाती हैं. वै नैमित्तिक क्रियाएं हैं।
देवपूजा-गुरूपास्ति- स्वाध्याय - संयम - तप और दान ये श्रावकों की नित्य क्रियाएं ॥ हैं। अष्टमी - चतुर्दशी - पाक्षिकी और नन्दीश्वर पर्व के दिन की जाने वाली क्रियाएं नैमित्तिक क्रियाएं हैं। इन दोनों ही प्रकार की क्रियाओं का पालन यथोचित विधि से प्रत्येक सदगृहस्थ को करना चाहिये।
शंका : जैन धर्म शुध्द अध्यात्मवादी धर्म है। फिर उस में इतनी अधिक मात्रा में क्रियाकाण्डों का वर्णन क्यों किया गया है?
समाधान : अध्यात्मवाद कोरा चिन्तन नहीं है। अध्यात्म शब्द अधि उपसर्ग पूर्वक अत् धातु से मणिन् प्रत्यय लगकर बना हुआ है। जो आत्मा की ओर ले जाये, वह अध्यात्म है - यह अध्यात्म शब्द का मूलार्थ है।
आत्मा को लक्ष्य रखकर की गई क्रिया भी अध्यात्म में अन्तर्निहित हो जाती है, अतः क्रियाकाण्ड निरर्थक नहीं है।
दूसरा कारण यह भी है कि मन बड़ा चंचल है। चंचल होने के साथ ही वह अधोगामी स्वभाववाला है। उस को रोककर कल्याण के पथ पर लगाने के लिए क्रियाएं अत्यन्त सहयोगी हैं, अतः क्रियाओं का वर्णन जैनागम में किया गया है।
ये नित्य-नैमित्तिक क्रियाएं मन को स्थिर करती है और महापुण्य का उपार्जन कराती
सुविधि शाल धन्द्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद,