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रत्नमाला
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परम्
ध्यान की प्रेरणा चिदानन्द - परंज्योतिः केवलज्ञान - लक्षणम् |
आत्मानं सर्वदा ध्यायेदेतत्तत्त्वोत्तमं नृणाम् ।। ५८. अन्वयार्थ : चिदानन्द चिदानन्द की
ज्ञातव्य है कि उत्कृष्ट
श्रावकाचार संग्रह में चिदानन्द की जगह ज्योतिः ज्योति (स्वरूप) चिदानन्दं छपा हुआ है। केवलज्ञान केवलज्ञान
11८::राले आत्मानम् आत्मा को सर्वदा हमेशा ध्यायेत् ध्याना चाहिये। एतत् यह
मनुष्यों का
उत्तम तत्त्वम् तत्त्व है।
नृणाम् उत्तमम्
अर्थ : चैतन्यानन्द की उत्कृष्ट ज्योति स्वरूप केवलज्ञान लक्षणवाले आत्मा को | हमेशा ध्याना चाहिये। यह ध्यान मनुष्यों का उत्तम तत्त्व है।
भावार्थ : चेतना की दो दिशाएं हैं - एक चंचल और दूसरी स्थिर। चंचल चेतना को | चित्त और स्थिर चेतना को ध्यान कहा जाता है। यह मत ध्यानशतककार को भी स्वीकार है। वे कहते हैं कि - जं थिरमज्झ वसाणं तं झाणं तं चलं तयं चित्त। जो || स्थिर अध्यवसान एकाग्रता को प्राप्त मन है, उसका नाम ध्यान है। इससे विपरीत जो चल चित्त है, वह भावना है। ध्यान को समझाते हुए आ. श्रुतसागर लिखते हैं कि -
"अपरिस्पन्द्रमानं ज्ञानमेव ध्यानमुच्यते। किंवत् ? अपरिस्पन्दमानाग्नि - ज्वालावत् | यथा अपरिस्पन्दमानाग्निज्वाला शिखा इत्युच्यते तथा अपरिस्पन्देनावभासमान झानमेव ध्यानमिति तात्पर्यार्थ : |
(तत्त्वार्थवृत्ति - ९/२७) अर्थ : निश्चल अग्नि शिखा के समान अपरिस्पन्दमान निश्चल ज्ञान ही ध्यान कहलाता | है। जैसे अपरिस्पन्दमान (स्थिर) अग्नि की ज्वाला शिखा कहलाती है, उसी प्रकार
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