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________________ रत्नमाला पृष्ठ . - 104 परम् ध्यान की प्रेरणा चिदानन्द - परंज्योतिः केवलज्ञान - लक्षणम् | आत्मानं सर्वदा ध्यायेदेतत्तत्त्वोत्तमं नृणाम् ।। ५८. अन्वयार्थ : चिदानन्द चिदानन्द की ज्ञातव्य है कि उत्कृष्ट श्रावकाचार संग्रह में चिदानन्द की जगह ज्योतिः ज्योति (स्वरूप) चिदानन्दं छपा हुआ है। केवलज्ञान केवलज्ञान 11८::राले आत्मानम् आत्मा को सर्वदा हमेशा ध्यायेत् ध्याना चाहिये। एतत् यह मनुष्यों का उत्तम तत्त्वम् तत्त्व है। नृणाम् उत्तमम् अर्थ : चैतन्यानन्द की उत्कृष्ट ज्योति स्वरूप केवलज्ञान लक्षणवाले आत्मा को | हमेशा ध्याना चाहिये। यह ध्यान मनुष्यों का उत्तम तत्त्व है। भावार्थ : चेतना की दो दिशाएं हैं - एक चंचल और दूसरी स्थिर। चंचल चेतना को | चित्त और स्थिर चेतना को ध्यान कहा जाता है। यह मत ध्यानशतककार को भी स्वीकार है। वे कहते हैं कि - जं थिरमज्झ वसाणं तं झाणं तं चलं तयं चित्त। जो || स्थिर अध्यवसान एकाग्रता को प्राप्त मन है, उसका नाम ध्यान है। इससे विपरीत जो चल चित्त है, वह भावना है। ध्यान को समझाते हुए आ. श्रुतसागर लिखते हैं कि - "अपरिस्पन्द्रमानं ज्ञानमेव ध्यानमुच्यते। किंवत् ? अपरिस्पन्दमानाग्नि - ज्वालावत् | यथा अपरिस्पन्दमानाग्निज्वाला शिखा इत्युच्यते तथा अपरिस्पन्देनावभासमान झानमेव ध्यानमिति तात्पर्यार्थ : | (तत्त्वार्थवृत्ति - ९/२७) अर्थ : निश्चल अग्नि शिखा के समान अपरिस्पन्दमान निश्चल ज्ञान ही ध्यान कहलाता | है। जैसे अपरिस्पन्दमान (स्थिर) अग्नि की ज्वाला शिखा कहलाती है, उसी प्रकार सुविधि शान चन्द्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.
SR No.090399
Book TitleRatnamala
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
AuthorSuvidhimati Mata, Suyogmati Mata
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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