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________________ ITTE. -२० पता:. 1015 रत्नमाला मा . 10 | निश्चल रूप से अवभासमान ज्ञान ही ध्यान कहलाता है। ध्यान चेतना का सम्यक रूपान्तरण है। ध्यान के विना आत्मा का साक्षात्कार नहीं होता। ध्यान द्वारा ही आत्मा अपनी प्रगति करता है। जैसे अग्नि के सम्पर्क में आने पर सुवर्ण की किट्टी कालिमा नष्ट होती है और सोना शुध्द हो जाता है, उसी प्रकार ध्यानाग्नि के सम्पर्क में आनेवाला आत्मा अपने पर लगी हुई कर्मों की किट्टी कालिमा को भस्म कर के शुध्द हो जाता है। ध्यान के महत्त्व को बताते हुए आ. जिनसेन लिखते हैं कि - ध्यानमेव तपोयोगाः शेषाः परिकराः मताः। ध्यानाभ्यासो ततोयत्नः शश्वत्कार्यों मुमक्षुभिः ।। आदिपुराण २१/७॥ अर्थ : ध्यान तपों में सर्वश्रेष्ठ है । शेष तप उसके परिकर के सदृश हैं, अतएव मुमुक्षु जीवों के द्वारा प्रयत्न पूर्वक निरन्तर ध्यान का अभ्यास किया जाना चाहिए। अशान्त मन को शान्ति का अथाह भण्डार प्रदान करनेवाला एकमात्र कुबेर ध्यान ही | है । आत्माभिमुख होकर समस्त दुःख के कारणों का उच्चाटन करने का एकमात्र साधन ध्यान दी एत पान नगमा टपों में सारभूत रूप है, जो स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त करा सकता है। उपर्युक्त श्लोक में ग्रंथकार ने ध्येयभूत आत्मा के लिए तीन विशेषण दिये हैं - ! चिदानन्द, परंज्योति, केवलज्ञान लक्षण संपन्न। __ चैतन्य का आनन्द अर्थात् अव्याबाध सुखों का निलय है आत्मा, अतः आत्मा को चिदानन्द यह विशेषण दिया गया है। दीपक सीमित प्रकाश करता है, परन्तु चैतन्य ज्योति चराचर को प्रकाशित करती है, अतः आत्मा ही परंज्योति है। तीन लोक व अलोक के समस्त पदार्थों को ज्ञेय बनाने का सामर्थ्य आत्मा में है, अतः आत्मा केवलज्ञान संपन्न है। ऐसे आत्मतत्व का सदैव ध्यान करना चाहिये। HTER सुविधि शाम चन्द्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.
SR No.090399
Book TitleRatnamala
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
AuthorSuvidhimati Mata, Suyogmati Mata
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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