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________________ तुला २० पालयन् मुच्यते अन्वयार्थ : अन्तरात्मभूत् अन्तरात्मा होकर गार्हस्थ्यम् बाह्यरूपेण (जो ) गृहस्थपने को बाह्य रूप से पुनः दुःख योनौ निश्चितम् न अतति रत्नमाला दुःख से मुक्ति गार्हस्थ्यं बाह्यरूपेण पालयन्त्रन्तरात्मभूत् । मुच्यते न पुनर्दुःख योनावतति निश्चितम् ।। ५९ दुःख योनि में निश्चित ही नहीं आता है। पृष्ठ पालन करता है (वह संसार से) मुक्त होता है। पुनः 106 ज्ञातव्य है कि श्रावकाचार संग्रह में भूत की जगत मुत छपा हुआ है। अर्थ: जो गृहस्थ अन्तरात्मा होकर बाह्यरूप से गृहस्थ धर्म का परिपालन करता है, वह निश्चित ही पुनः पुनः दुःख रूप योनियों में नहीं आता है। भावार्थ: आत्मा शब्द की परिभाषा करते हुए ब्रह्मदत्त ने लिखा है कि "अतधातुः सातत्यगमनेऽर्थे वर्त्तते । गमन शब्देनात्र ज्ञानं भण्यते "सर्वे गत्यर्था ज्ञानार्था इति वचनात् । तेन कारणेन यथासंभवं ज्ञानसुखादि गुणेषु आसमन्तात् अति वर्तते यः स आत्मा भण्यते । अथवा शुभाशुभ मनो वचनकाय व्यापारैर्यथासम्भवं तीव्र मन्दादिरूपेण आसमन्तादतति वर्त्तते यः स आत्मा अथवा उत्पादव्यय ध्रौव्यरासमन्तादतति वर्त्तते यः स आत्मा ।" (बृहद द्रव्यसंग्रह - ५७ अर्थ : अत् धातु निरन्तर गमन करने रूप अर्थ में वर्तता है और "सब गमनरूप अर्थ के धारक धातु ज्ञान अर्थ के धारक हैं" इस वचन से यहाँ पर गमन शब्द करके ज्ञान कहाँ जाता है। इस कारण जो यथासम्भव ज्ञान सुख आदि गुणों में पूर्ण रूप से वर्त्तता है। वह आत्मा है। अथवा शुभ अशुभ रूप जो मन-वचन काय के व्यापार हैं, उन कर के यथासंभव तीव्र मन्द आदि रूप से जो पूर्ण रूप से वर्त्तता है, वह आत्मा कहलाता है। अथवा उत्पाद व्यय और ध्रौव्य इन तीनों करके जो पूर्णरूप से वर्त्तता है, उसको आत्मा सुविधि ज्ञान चन्द्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.
SR No.090399
Book TitleRatnamala
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
AuthorSuvidhimati Mata, Suyogmati Mata
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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