Book Title: Ratnamala
Author(s): Shivkoti Acharya, Suvidhimati Mata, Suyogmati Mata
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 127
________________ अन्वयार्थ : श्रावकाध्ययनम् प्रोक्तम् कर्मणा गृहमेधिता सी ฐ सर्व जैनानाम् सम्मता अन्या २० रत्नमाला जैन श्रावक की क्रियाएं श्रायकाध्ययनं प्रोक्तं - कर्मणा गृहमेधिता । सम्मता सर्व जैनानां सा त्वन्या परिपन्धनात् ।। -६५. · श्रावकाध्ययन में कही गयी क्रियाओं से (ही) गृहस्थता है। 4119 वह नियम से सभी जैनों के लिए सम्मत हैं श्रातव्य है की श्रावकाचार संग्रह में श्रावकाध्ययनं प्रोक्तं के स्थानपर श्रावकाध्यन प्रोक्त छपा हुआ है। अन्य सब परिपन्धनात् कुमार्ग हैं। अर्थ : श्रावकाचारों में कहे हुए आचरण के अनुकूल समस्त क्रियायें सर्व जैनों को मान्य गृहस्थता है। अन्य मार्ग नियमतः कु मार्ग हैं। भावार्थ : श्रुतज्ञान के "ग्यारह अंग व १४ पूर्व यह भेद हैं। अथवा अंगबाह्य व अंग्रप्रविष्ठ ये | दो भेद श्रुत ज्ञान के हैं। ग्यारह अंगों में सातवा अग उपासकाध्ययन है इसे ही इस श्लोक में श्रावकाध्ययन कहा है। श्रावकाध्ययन अर्थात् श्रावकाचार में और भी अनेकानेक क्रियाएं कही हैं। श्रावकों को तिरेपन क्रियाओं का निर्देश करनेवाली गाथा लाटीसंहिता में उध्द्धृत की हुई है। यथा गुण वय तव सम पडिमा दाणं च अगत्थिमियं । दंसण गाण चरितं किरिया तेवण सावयाणं च ।। पानी अर्थ : अष्ट मूलगुण, बारहव्रत, बारह तप एक समता ग्यारह प्रतिमा चार दान, छानकर पीना, रात्रिभोजन त्याग, रत्नत्रय धारण । श्रावक को प्रतिदिन षड़ावश्यकों का पालन करना चाहिये ऐसा उपदेश आ. पद्मनन्दि महर्षि ने दिया है। देवपूजा गुरुपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः। दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ।। (पद्मनन्दि पंचविशतिका ६ / ७) अर्थ : देवपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये षट् आवश्यक कर्म गृहस्थों | के लिए प्रतिदिन करणीय हैं। इसके अतिरिक्त आचार्य जिनसेन ने आदि पुराण में गर्भान्वय क्रिया, दीक्षान्वय क्रिया और कर्त्रन्वय क्रिया आदि क्रियाओं का कथन किया है। इन का विस्तृत वर्णन तद्तद् ग्रंथों से विस्तार से जान लेना चाहिये । इस तरह श्रावकाचार प्रणीत क्रियाओं का पालन गृहस्थ को करना चाहिये । श्रावकाचार से बाह्य कर्मकाण्ड कुमार्ग है अतः उनका अवलम्बन नहीं लेना चाहिये। सुविधि ज्ञान चन्द्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.

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