________________
THERE
AN ELAIT -२०- रत्नमाला
पृष्ठ 5, - 112 न्याय दर्शन में १६ तत्त्व माने हैं। इस दर्शन का परमाणु कारणतावाद दार्शनिकों का ध्यान विशेष रूप से आकर्षित करता है। सुख दुःखात्मक मनोवृत्ति का नाश हो जाने पर मन साम्यावस्था को प्राप्त होता है । इसे ही वे मुक्ति मानते हैं। ईश्वर अनुमानगम्य है। मुक्ति के दो भेद वे मानते हैं - पर और अपर। जीवनमुक्ति अपर है तो विदेह मुक्ति पर है। __तत्त्वचिन्तामणि, न्यायवार्तिक, न्यायकलिका, न्यायमंजरी आदि इन के प्रमुख ग्रंथ हैं तो वाचस्पति, गंगेशादि ग्रंथकार हैं।
क) वैशेषिक दर्शन : महर्षि कणाद इस मत के प्रवर्तक हैं। वे मानते हैं कि समस्त जगत् की रचना परमाणुओं से होती है। वे परमाणु जब एक दूसरे से पृथक् हो जाते हैं, तब प्रलय हो जाता है। जब वे परमाणु परस्पर में मिल जाते हैं, तब भिन्न-भिन्न प्रकार के रूपों व नामों की रचना करने लगते हैं, उस से जगत का आविर्भाव होता है।
इस मतानुसार पदार्थ सात होते हैं - द्रव्य - गुण - कर्म - सामान्य - विशेष - समवाय |तथा अभाव।
ईश्वर या ब्रह्मा इन्हें मान्य नहीं है। वे समझाते हैं कि मनुष्य इस संसार में आकर पदार्थों के रूप स्वभाव गुणधर्म को ठीक-ठीक समझ जाये, ताकि उस का व्यवहार सम्यक हो। इस से मोक्ष प्राप्त होता है।
वैशेषिक सुत्र, तर्क कौमुदी, किरणावली, लीलावती, तर्क संग्रह और तर्कामत ये उनके प्रमुख ग्रंथ हैं तो श्रीधर, व्योमशेखर. उदयन, वत्स आदि अनेक प्रमुख लेखक हैं। | ड) योगदर्शन : इस दर्शन के आद्य प्रवर्तक हिरण्यगर्भ अर्थात् स्वयंभू हैं। प्रसिद्ध व्याकरणकार पतंजलि इस योग दर्शन के व्यवस्थापक माने जाते हैं। ___ इस दर्शन में चित्त ही एक तत्त्व है। चित्त की वे पाँच दशाएं स्वीकार करते हैं, क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त निराद्ध एकाग्र इन में से एकाग्न व निरुद्ध दशा को वे प्रशस्त मानते हैं।
योग का अर्थ समाधि है। यथा- योगश्चित्तवृत्ति निरोध : (योगदर्शन - २)
उस के लिए वे अष्टांग का उपदेश देते हैं। उन का वस्तुवाद का चिन्तन दार्शनिक दृष्टि से इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि वह मायावाद का निराकरण करता है। वह वस्तुओं की | यथार्थता को स्वीकार करता है।
पातंजलि योगदर्शन या योगवार्तिक आदि इन के महत्त्वपूर्ण ग्रंथ हैं, तो नागोजी भट्ट व विज्ञानभिक्षु इन के प्रमुख ग्रंथकार है। | इोजैमिनीय दर्शन: मीमांसा दर्शन के दो भेद हैं, पूर्व मीमांसा व उत्तर मीमांसा । पूर्व मीमांसा को ही जैमिनीय दर्शन कहते हैं। इस के प्रवर्तक जैमिनीय ऋषि हैं। वे वेदव्यास के शिष्य थे, ऐसा इतिहासकारों का मानना है। इतिहासकारों का यह कथन हैं कि ई. पू. २०० में जैमिनी सूत्र की रचना हो चुकी थी।
इस का मुख्य विषय यद्यपि कर्मकाण्ड सम्बन्धी ब्राह्मण वाक्यों की संगति लगाना है परन्तु सातवीं शताब्दी से यह विशुद्ध दार्शनिक विवेचन की ओर प्रवृत्त हुआ। इस का
अविधि शाठा पत्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद
انعامانه