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माता.. -२०
रत्नमाला
पारा -109
गृहस्थाश्रम में प्रचुर आरंभ परिग्रहादि के कारण शुध्दात्म ध्यान रूप निश्चय धर्म संभव नहीं है। अतः उसे पुण्यवर्धन करते हुए आत्मस्थिरता का प्रयत्न करते रहना चाहिये।
यही बात आचार्य देवसेन को इष्ट है। यथा
"जामण दंडह गेहं ताम परिहरइ इंतवं पावं, पावं अपरिहरंतो हेओ पुण्णस्स मा चयउ।" - ३९३
मा मुक्क पुण्णहउँ पावस्सास अपरिहरंतो या बुज्झइ पार्वण णरो सो दुग्गइ जाउ मरिऊणं||३९४
{भावसंग्रह - ३९३-३९४) अर्थ : इस प्रकार ये गृहस्थ लोग जबतक घर का त्याग नहीं करते, गृहस्थधर्म को छोड़ कर मुनिधर्म धारण नहीं करते. तब तक उनसे ये पाप छूट नहीं सकते । इसलिए जो गृहस्थ पापों को पूर्ण रूप से नहीं छोड़ना चाहते, उन को कम से कम पुण्य के कारणों को तो नहीं छोड़ना चाहिए।" __ "जो गृहस्थ पाप रूप का त्याग नहीं कर सकते अर्थात गृहस्थ धर्म नहीं छोड़ चकते, उन को पुण्य के कारणों का त्याग कभी नहीं करना चाहिए क्योंकि जो मनुष्य सदाकाल पापों का ही बंध करता रहता है, वह मनुष्य मर कर नरकादिक दुर्गति को के प्राप्त होता है।"
अतः आगमोक्त पुण्यक्रियाओं का समुचित परिपालन करना चाहिये तथा यह ध्यान में रखना चाहिये कि आर्ष मर्यादा से विरुद्ध जो कल्पित क्रियायें हैं, उन का त्याग करना चाहिये।
सुविधि ज्ञान चन्द्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.