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HARTI , . २० रत्नमाला
गत ता- 94 णमोकार मन्त्र के स्मरण का फल
दशन्ति तं न नागाद्या न ग्रसन्ति न राक्षसाः।
न रोगाद्यपि घ जायन्ते यः स्मरेन्मन्त्रमव्ययम् ।। ५०. अन्वयार्थ तम्
उस को नागाद्या नागादि
ज्ञातव्य है कि
आ.व./पार संग्रह में दशन्ति
इसते हैं रोगाद्यापि जायन्ते दोन राक्षसाः
राक्षस स्थानपर रोगाश्चापि जायन्ते
छपा हुआ है ग्रसन्ति
ग्रसते हैं
और रोगादि
रोगादि अपि
स
नहीं
त
जायन्ते
होते यः अव्ययम्
अव्यय मन्त्रम्
मन्त्र का स्मरेत्
स्मरण करता है। टिप्पणी: नागाद्या की जगह मेरी समझ से नागादी चाहिये।
अर्थ : जो अव्यय मन्त्र का स्मरण करता है, उसे नागादिक दंश नहीं करते, राक्षस || नहीं ग्रसते और रोग भी नहीं होते।।
भावार्थ : दिवादि गण के मनज्ञाने धातु से ष्ट्रन प्रत्यय करने पर मन्त्र शब्द बनता है। इस की व्युत्पत्ति है मन्यते ज्ञायते आत्मादेशोऽनेन इति मन्त्रः अर्थात् - जिस के द्वारा आत्मा का आदेश निजानुभव जाना जाए, वह मन्त्र है। __तनादिगणीय मन् अवबोधे धातु से ष्ट्रन प्रत्यय की योजना करने पर मन्त्र शब्द सिध्द होता है। इस की व्युत्पत्ति इस प्रकार है - मन्यते विचार्यते आत्मावेशो येन स मन्त्रः | अर्थात जिसके द्वारा आत्मादेश पर विचार किया जाए, वह मन्त्र है।
मन् सम्माने धातु के साथ ष्ट्रन प्रत्यय के योग से भी मन्त्र शब्द बनता है। इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है "मन्यन्ते सतिकयन्ते परमपदे स्थिताः आत्मानः वा यक्षादिशासनदेवता अनेन इति मन्त्रः अर्थात् जिस के द्वारा परमपद में स्थित पंच उच्च आत्माओं का अथवा युक्षादि शासन देवों का सत्कार किया जाए, वह मंत्र है। | इस संसार में अनेकों मन्त्र हैं। परन्तु णमोकार मन्त्र सब मन्त्रों का राजा है। इस के | महत्त्व को बताते हुए आर्ष ग्रंथ कहते हैं कि -
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