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रत्नमाला
D. - 18
रलमालाला - 18 सम्यग्दर्शन का महत्त्व विरत्या संयमेनापि हीनः सम्यक्त्ववानरः। सुदैवं याति कर्माणि शीर्णयत्येव सर्वदा।। १०.
अन्वयार्थ :
विरत्या
व्रत से (और) संयम से
संयमेन अपि हीनः सुदैवम् सम्यक्त्ववान् नरः याति सर्वदा
हीन सौभाग्य को अथवा अच्छी देव पर्याय को सम्यग्दृष्टि मनुष्य प्राप्त करता है और सर्वदा
एव
कर्माणि शीर्णयति
कों का नाश करता है।
अर्थः व्रत और संयम से हीन सम्यग्दृष्टि जीव भी निरन्तर पुण्यकर्मों का आप्रव और पाप कर्मों का विनाश करता है।
भावार्थ : पाँच पापों से विरक्त होना. व्रत है तथा पंचेन्द्रिय व मन को वश करना और षट्कायिक जीवों की विराधना नहीं करना. सो संयम है। यदि सम्यग्दृष्टि जीव इन से रहित हो (अविरत सम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान वर्ती जीव नियमतः व्रत संयम से हीन होता है तो भी वह सुदैव को प्राप्त करता है।
यहाँ दैव शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। दैव का अर्थ भाग्य करने पर सम्यग्दृष्टि सौभाग्यशाली होता है, ऐसा अर्थ होगा। इससे मनुष्य तीर्थकर - चक्रवर्ती-बलभद्रकामदेव आदि महापुरुष होगा-ऐसा अर्थ ध्वनित होता है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार
ओजस्तेजो विद्या वीर्ययशो वृद्धि विजय विभवसनाथाः। महाकुला महार्था, मानवतिलका भवन्ति दर्शनपूताः।।
(रत्नकरण्ड श्रावकाचार - ३६) अर्थ : सम्यग्दर्शन से पवित्र जीव यदि मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं तो ओज, प्रताप, विद्या, वीर्य, यश, वृध्दि, विजय और वैभव से संयुक्त महान् कुलों में उत्पन्न होनेवाले,
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