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पृप्त नाम, - 69
पुष्पक - २०
रत्नमाला आ. अमृतचन्द्र ने लिखा है कि -
पात्रं त्रिभेदमुक्तं संयोगे मोक्षकारण गुणानाम् । अविरत सम्यग्दष्टि विरताविरतश्च सकल विरतश्च ।।
(पुरुषार्थ सिध्दयुपाय - १७१) अर्थ : मोक्ष के कारण स्वरुप गुण सम्यक रत्नत्रय का जिन में संयोग हो, ऐसे || अविरत सम्यग्दृष्टि चतुर्थगुणस्थानवी, विरताविरत । देशविरत पंचमगुणस्थानवर्ती और सकलविरत छठे गुणस्थानवर्ती मुनिराज ये तीन प्रकार के पात्र कहे गये हैं। समदात्ति : आ. जिनसेन लिखते हैं कि -
समानायात्मनाऽन्यस्मै, क्रियामन्त्र व्रतादिभिः । निस्तारकोत्तमायेह भूहेमाद्यति सर्जनम् || समानदत्तिरेषा स्यात् पात्रे मध्यमतामिते । समान प्रतिपत्त्यैव प्रवृत्ता शृध्दयाऽन्विता।।
(महापुराण ३८/३८-३९) अर्थ : क्रिया, मंत्र और व्रत आदि से जो अपने समान हैं, ऐसे अन्य साधर्मी बन्धु के लिए और संसार तारक उत्तम गृहस्थ के लिए भूमि, सुवर्ण आदि देना समदत्ति हैं। तथा मध्यमपात्र में समान सम्मान की भावना के साथ श्रध्दा से युक्त जो दान दिया जाता है, वह भी समानदत्ति है। दयादत्ति : पं. मेघावी लिखते हैं कि -
सर्वेभ्यो जीवराशिभ्य : स्वशक्त्या करणैस्त्रिभिः | दीयतेऽभयदानं यद्दयादानं तदुच्यते ।।
धर्मसंग्रह श्रावकाचार ६/१९०) अर्थ : सम्पूर्ण जीवमात्र के लिए कृत, करित तथा अनुमोदन से अपनी शक्ति के अनुसार अभयदान देने को बुद्धिमान् लोग दयादान {दयादत्ति) कहते हैं। अन्वयदत्ति : इसे सकल दत्ति भी कहते हैं। पं. मेघावी ने लिखा है कि -
समर्थाय स्वपुत्राय तदभावेऽन्यजाय वा। यदेतद्दीयते वस्तु स्वीयं तत्सकलं मतम् ।।
धर्मसंग्रह श्रावकाचार ६/१९६) || अर्थ : सब तरह समर्थ अपने पुत्र के लिए अथवा पुत्र के न होने पर दूसरे से उत्पन्न होने वाले (दत्तक) पुत्र के लिए अपनी धनधान्यादि से सम्पूर्ण वस्तु का जो देना है, उसे सकल दत्ति कहते हैं।
इस तरह चारों दानों के द्वारा जैन धर्म के आराधकों की उन्नति करें, तथा दीन और ॥ अनाथों को करुणा दान देना चाहिये।
सुविधि ज्ञान चक्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.