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पुष्प Ti, - २० रत्नमाला
तक - 70 गृहीत ब्रतों को परिपालन करने की प्रेरणा
व्रत शीलानि यान्येव रक्षणीयानि सर्वदा ।
एकैकादेव जायन्ते देहिनां दिव्यसिध्दयः।।३८. अन्वयार्थ : यानि जो गृहीत) ज्ञातव्य है कि - व्रत व्रत
श्रावकाचार संग्रह में एकैकादेव की जगह शीलानि शील हैं उनका एकनैकेन छपा हुआ है। सर्वदा
सदा
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रक्षणीयानि रक्षण करना चाहिये एक-एकात् एक-एक से देहिनाम् संसारियों को दिव्य दिव्य सिध्द्यः सिद्धियों जायन्ते
प्राप्त होती है। अर्थ : जो व्रत और शील ग्रहण किये गये हैं, उन का रक्षण करना चाहिये क्योंकि वे व्रतादि एक-एक भी जीव को सिद्धियों प्रदायक होते हैं।
भावार्थ : व्रत को परिभाषित करते हुए उमास्वामी महाराज लिखते हैं कि .. हिंसानृतस्तेयाब्रह्म परिग्रहेभ्यो विरतितिम तित्त्वार्थ-सूत्र ७/१) अर्थ : हिंसा नृत अस्तेय, अब्रह्म और परिग्रह से विरक्त होना, व्रत है। ये अहिंसादि के भेदों से ५ प्रकार के हैं। शील की परिभाषा करते हुए आ. पूज्यपाद ने लिखा है कि - द्रतपरिरक्षणार्थ शीलमिति दिग्विरत्यादीनीह शीलग्रहणेन गृह्यन्ते सर्वार्थसिद्धि ७/२४, |
अर्थ : व्रत की रक्षा के लिए शील है, इसलिए यहाँ शील पद के ग्रहण से दिग्विरत्यादि ग्रहण करना चाहिये। शील शब्द अनेकार्थों में प्रयुक्त हैं। यथा - स्वभाव, अच्छी प्रकृति, सद्गुण, नैतिकता, प्रवृत्ति, रुचि, ब्रह्मचर्य आदि. जो प्रवृत्ति व्रतों की रक्षा में कारण है. वह यहाँ शील शब्द से अभिसंशित है। व्रतों की सुरक्षा बिना शील के संभव नहीं है। अतः आचार्य अमृतचन्द्र शीलव्रत पालन की प्रेरणा देते हुए लिखते हैं कि -
परिधय इव नगराणि व्रतानि किल पालयन्ति शीलानि। व्रतपालनाय तस्माच्छीलान्यपि पालनीयानि।। (पुरुषार्थ सिध्दयुपाय - १३६} अर्थ : जैसे परिधि अर्थात् परकोटा नगर की रक्षा करता है, उसी प्रकार शील व्रतों की रक्षा करते हैं। अतः ग्रहण किये गये अहिंसादि व्रतों के परिपालन के लिए गुणव्रत और शिक्षाव्रत रूप | सात शीलों को भी पालन करना चाहिए।। तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये सप्त शीलवत हैं।
जो व्रत और शील ग्रहण किये गये हैं, उनका यथार्थ परिपालन प्रयत्न पूर्वक करना चाहिये। जो एक भी व्रत का निरतिचार पालन करता है, वह दिव्य विभूति को प्राप्त करता है. · फिर अनेक व्रतों का फल कहने की क्षमता इस लेखनी में कहाँ? या तो इसे सर्वज्ञ ज्ञाने या भुक्तभोगी।
सुविधि ज्ञान चन्द्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद,