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i. - २०
रत्नमाला
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मनुष्य
भुवः
अचौर्य ब्रत का फल चतुःसागर - सीमाया र्भुवः स्यादधिपो नरः |
परद्रव्य परावृतः सुव्रत्योपार्जित स्वकः || ४१. अन्वयार्थ :
नरः परद्रव्य
पर-द्रव्य से
न होका स्वकः
अपने द्वारा सु-व्रत्या
अच्छी वृत्ति से (अर्थ) उपार्जित :
उपार्जित (करनेवाला होता है। चतुःसागर
चार सागरों की सीमाया :
सीमा तक की
भूमि का अधिपः
स्वामी स्यात्
होता है। अर्थ : जो मनुष्य परद्रव्य से परावृत्त हो कर अच्छी वृत्ति से अपने द्वारा अर्थ उपार्जित करने वाला होता है, वह चार सागरों तक की भूमि का स्वामी होता है।
भावार्थ : आचार्य प्रवर उमास्वामी महाराज ने लिखा है कि - अदत्तादानं तैयम् (तत्त्वार्थसूत्र७/१4) अदत्त क्या है? यह बताते हुए आ. भास्करनन्दि लिखते हैं कि - दीयते स्म दत्तं-परेण समर्पितमित्यर्थः। न दत्तमदत्तम (तत्त्वार्थवृत्ति सुखबोध टीका-७/ १५) पर के द्वारा जो वस्तु दी गई हो, वह दत्त है। जो दत्त नहीं है. वह अदत्त है। आदान यानि हस्तादिक के द्वारा ग्रहण करना। अदत्त का ग्रहण करना चोरी है।
विना दी हुई वस्तु वह चाहे छोटी हो या बड़ी, अल्पमूल्यवान् हो या अतिमूल्यवान् अपने अधिकार में ले लेना, चौर्यकर्म है। ग्रहण करना तो दूर ही रहा, अपितु ग्रहण करने रूप भावों का उत्पन्न होना ही, चोरी है। यह अभिप्राय आ. पूज्यपाद स्वामी को इष्ट है। वे कहते हैं कि - यत्र संक्लेश परिणामेन प्रवृत्तिस्तत्र स्तेयं भवति। बाहावस्तुनो ग्रहणे चाग्रहणे च)|
(सर्वार्थसिध्दि ७/147 अर्थात : बाह्यवस्तु का ग्रहण हो अथवा न हो विना दी हुई वस्तु को ग्रहण करते समय संक्लेश भाव अवश्य होता है । जहाँ संक्लेश परिणाम होते हैं, वहाँ चोरी अवश्यमेव
चोरी के लिए आगम में करीब - करीब ३० समानार्थक शब्द प्राप्त हुए हैं। यथा. १
DERABA
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