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जो
समग्र
गुष्णा . - २० रत्नमाला
गत ता. - 79 पुनः उसी बात को दृढ करते हैं
याः याः समग्रशोभाद्या सम्पदो जगतीतले। तास्ताः सर्वा अभिप्रायः परकान्ता विवजनात् ।। ४३. अन्वयार्थ याः जो
ज्ञातव्य है कि याः जो
श्रावकाचार संग्रह में तास्ताः सर्वा के स्थानपर जगतीतले भू-तल पर तास्तत्सर्वा प्रकाशित किया गया है।
सम्पूर्ण सम्पदः सम्पदाएं शोभाद्या शोभा आदि है ताः
वह ताः
वह सर्वा सब अपि परकान्ता पर स्त्री के विवर्जनात् त्याग करने से स्यात् प्राप्त होती है।
अर्थ : इस जगत् में जितनी सम्पदाएं हैं - शोभा हैं, वह सब परस्त्री सेवन के त्याग से प्राप्त होती है।
भावार्थ : अनन्तर-पूर्व श्लोक में विधिमुखेन ब्रह्मचर्य व्रत का फल बताया गया था. यहाँ उसी के फल को बताया जा रहा है। श्री पद्मनन्दि भट्टारक लिखते हैं कि :
शोधिः केश शिखेव दाह जननी, नीप्रियेवापगा.
प्रोद्यध्दमतती व कालिमचिता शम्पेव भीतिप्रवा।। सन्ध्येव क्षणरागिणी हुतजगा प्राणा भुजङ्गीव सो! कार्या कार्य विचार घासमतिभिस्त्याज्या परस्त्री सदा।।
श्रावकाचार सारोदार ३/२२७) __अर्थ : कार्य-अकार्य का विचार करनेवाले सुन्दर बुध्दिशाली आर्य पुरुषों द्वारा ऐसी | परस्त्री सदा त्यागने योग्य है, जो कि शोकरूप केश शिखावाली. अग्नि के समान दाह को उत्पन्न करती है, नदी के समान नीच प्रिय है, उत्तरोत्तर उठती हुई धूमपंक्ति के समान कालिमा से व्याप्त है, बिजली की गर्जना के समान भय को देने वाली है, संध्या के समान कुछ क्षणों की लालिमा वाली है और सर्पिणी के समान जगत् के प्राण हरण करने वाली
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