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సంతర
Enr. . २० रस्ममाला
पृष्ठ ता. - 82 जनक कार्य करता है, जिससे षट्कायिक जीवों का घात होता है। पर द्रव्य को ग्रहण करने के लिए झूठ भी बोलता है, अधिक संग्रह की इच्छा से मिलावट करना, कम तौलना | आदि चौर्यकर्म भी करता है।
दूसरे द्वारा अपने धन का हरण होने पर परिग्रही क्रोध करता है, मेरे पास इतना वैभव है, यह भाव भी परिग्रही को होता है. धन को अनैतिक रूप से प्राप्त करने के लिए वह अनेक प्रकार का कपट करा. है। जैसे पनि जला है, यह उसे और अधिकाधिक चाहता है।
धनवान् निर्थन का उपहास करता है, यह हास्य है। अपने द्रव्य के प्रति उसे अनुराग होता है, यह रति है। अपने धन का नाश होते देख, उसे अरति होती है। दूसरा मेरा परिग्रह हरण न कर लेवें, यह भय उसे सतत सताता है, धन का हरण होने पर परिग्रही जीव शोक करता है, परिग्रह में कमी आने पर वह जुगुप्सा करने लगता है।
परिग्रही पुरुष अपने परिग्रह को विकसित करने के लिए वह सतत प्रयत्न करता है। इस में वह कलह करता है, परनिन्दा करता है, चुगली करता है, अपमान को सहन करता है, दूसरों पर सन्देह करता है। इस तरह परिग्रह सम्पूर्ण दोषों को उत्पन्न करता
परिग्रह को दुःख का मूल बताते हुए आ. शुभचन्द्र लिखते हैं कि
संगास्कामस्ततः क्रोधस्तस्मादिंसा तयाऽशुभम् । तेन श्वाभी गतिस्तस्यां, दुःख वाचामगोचरम् ।।
(ज्ञानार्णव - १६/१२) अर्थ : परिग्रह से काम होता है, काम से क्रोध, क्रोध से हिंसा, हिंसा से पाप और पाप से नरकगति होती है । उस नरक गति में वचनों के अगोचर अति दुःख होता है। इस प्रकार दुःख का मूल परिग्रह है ।
परिग्रह से मनुष्य के मन की तृप्ति असंभव है। अग्नि को संस्कृत भाषा में "अनलम् " कहते हैं। समास विच्छेद करने पर दो शब्द बनते हैं न अलम् अलम् यानि तृप्ति। बहुत से काष्ठ व धृतादि का प्राशन करके अग्नि तृप्त नहीं होती, उसी प्रकार अति संचय करने पर भी परिग्रही मन संतुष्ट नहीं होता। अतः साधक को प्रयत्न पूर्वक अतिकांक्षा का हनन करना होगा, जिससे वह साधना निर्विघ्न कर सकें व केवलज्ञान और परम सुख प्राप्त कर सकें।
सुविधि शान चन्द्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.