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रास
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रत्नमाला
गप्ठ हा... 68
दान की प्रेरणा दयावत्यादिभिनं धर्मसन्तानमुदरेत् ।
दीनानाथानपि प्राप्तान् विमुखामेव कल्पयेत् ।। ३७. अन्वयार्थ : नूनम् निश्चय से
झातव्य है कि - दयादत्त्यादिभिः दयादत्ति आदि से श्रावकाचार संग्रह में धर्म-सन्तानम धर्म सन्तति की दयादत्त्यदिभिर्नून उध्दरेत् उन्नति करें
की जगह दया दत्त्यादि छपा दीन दीन
हुआ है। अनाथान्
अनाथों को अपि प्राप्तान
प्राप्त करने पर विमुखान्
विमुख न - एव
नहीं कल्पयेत्
करें।
अर्थ : दयादान आदि से धार्मिकों की उन्नति करें तथा दीन व अनाथों को भी दान देना | चाहिये।
भावार्थ : आगम में दान के चार भेद कहे गये हैं।
पानदत्ति : सद्भक्ति से युक्त हो कर पात्रों को चतुर्विध दान देना, पात्र दान है।
आ. जिनसेन ने लिखा है कि -
महातपोधना यार्चा प्रतिग्रह पुरःसरम | प्रदानमशनादीनां पात्रदानं तदिष्यते ।।
(महापुराण ३८/३७) अर्थ : महान् तपस्वी साधुजनों के लिए प्रतिग्रह आदि नवधा भक्ति पूर्वक आहार, औषधि आदि का देना पात्र दत्ति कही जाती है। पात्र के ३ भेद हैं - उत्तम - मध्यम और जघन्य। उनका वर्णन करते हुए
सुविधि शाम पत्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद,