Book Title: Ratnamala
Author(s): Shivkoti Acharya, Suvidhimati Mata, Suyogmati Mata
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 70
________________ रत्नमाला a re str.. dzs..62 गाल, - २० र - २० रत्नमाला चैत्यालय बनाने का उपदेश उत्तुङ्ग तोरणोपेतं चैत्यागारमघक्षयम् | कर्त्तव्यं श्रावकैः शक्त्यामराविकमपि स्फुटम् || ३३. अन्वयार्थ : शक्त्या शक्ति के अनुसार उत्तुङ्ग उन्नत तोरण तोरण से रात अघक्षयम् पाप नाशक चैत्यागारम् चैत्यालय पावकः श्रावकों के द्वारा बनवाया जाना चाहिये (और) स्फुटम् निश्चय से अमरादिकम् देव प्रतिमा अपि कर्त्तव्यम् बनानी चाहिये। उपेतम् - कर्तव्यम् अर्थ : उन्नत तोरण से युक्त, पाप विनाशक चैत्यालय श्रावकों को बनाना चाहिये और | जिन प्रतिमा भी शक्ति के अनुसार बनानी चाहिये। भावार्थ : परमात्मा सदा सर्वदा हमारी अन्तरात्मा में वास करता है। दूध में घी होता है, तिल में तेल होता है ना? बस! उसी तरह वह हम में रहता है। आवश्यकता है उसको जगाने की, अन्तर्मन में दृष्टिपात करने की. स्वयं को पहचानने की। दूध से घी एकदम नहीं बनता। दूध में सर्वप्रथम जामन डाला जाता है. जिस से दही बनता है। उस दही को मथनी द्वारा मथकर मक्खन प्राप्त किया जाता है। मक्खन तप कर घी बनता है। अनेक साधनों का प्रयोग घी बनाता है। तदनुरूप आत्मा को परमात्मा बनाने का साधन या माध्यम है मन्दिर __मन्दिर यानि चूना माटी से चुनी गई चार दीवारी और उस पर रखा गया कलश ही | नहीं, अपितु जहाँ पर शान्ति को प्रश्रय मिलता है, विशुद्धता का सौरभ होता है, अध्यात्म | और व्यवहार का बेजोड़ संगम होता है, उस निर्मल स्थान को कहते हैं, मन्दिर। ___ मानव दैनंदिन जीवनचर्या में रोटी कपड़ा और मकान हेतु परिश्रम में अर्थात अर्थोपार्जन | में तल्लीन रहता है। उस विकल्प जाल को ध्वस्त करने के लिए मन्दिर ही एक समर्थ सुविधि झान चरिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद,

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