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HTT. - २ रनमालापा . - 53
कारण है। हे मानव! जिन भाव भंगिमा की मूरत तू बन बैठा है, वह तेरा अपना स्वरूप नहीं हैं। तू भी परमात्मा है। यह मूक सम्बोधन उसे मन्दिर में ही प्राप्त हो सकता है. अन्यत्र नहीं। परिणामों का संशोधन एवं संवर्धन मन्दिर नामा फैक्ट्री में ही हो सकता है।
अपनी सुप्त शक्तियों को जगाने का, जीवन में चेतना गान करने का, हेपोपादेय को समझने का तथा आत्म वैभव के साथ दया, धर्म, शान्तता, सहनशीलता एवं निस्वार्थता का बोध भी जिन मन्दिर से सम्प्राप्त होता है। । अतः ग्रंथकार का कथन है कि प्रत्येक श्रावक को अपनी शक्ति के अनुसार जिन मन्दिर बनाना चाहिये।
आगम प्रमाण से युक्त, सुन्दर, वीतरागी जिन प्रतिमा भी मन्दिर में स्थापित करानी चाहिये।
साचार्य उमास्तामी ने लिखा है कि
बिम्बीदलसमे चैत्ये, यवमानं सुबिम्बकम् | यः करोति हि तस्यैव, मुक्तिर्भवति सनिधिः।।
(उमास्वामी श्रावकाचार - ११५)
अर्थ : जो पुरुष बिम्बीदल (किन्दूरी के पत्र के समान चैत्यालय बनवा कर के उस में यव (जो) प्रमाण भी जिनबिम्ब को स्थापन कर उस का प्रतिदिन पूजन करता है, उस के ही मुक्ति समीपवर्तिनी होती है।
सुविधि शान चठित्रका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.