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सुखास.
रत्नमाला
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है।
(ज्ञातव्य है कि - श्रावकाचार संग्रह में तृतीयः की जगह तृतीयं लिखा हुआ अर्थ: दिव्रत, अनर्थदण्डव्रत, भोगोपभोग परिमाण व्रत ये तीन गुणव्रत हैं। सामायिक प्रोषधोपवास, अतिथिसंविभाग तथा सल्लेखना ये चार शिक्षाव्रत हैं।
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वे व्रत संसारी जीवों के लिए स्वर्ग और मोक्ष के एकमात्र साधन हैं। भावार्थ: तीन गुणव्रत एवं चार शिक्षाव्रतों को शीलव्रत कहा जाता है। व्रतशुध्दि हेतु शीलव्रतों का परिपालन करना, अत्यन्त अनिवार्य है।
आ. अमृतचन्द्र का भी यही मन्तव्य है । यथा
-
परिधय इव नगराणि व्रतानि किल पालयन्ति शीलानि । व्रत पालनाय तस्माच्छीलान्यपि पालनीयानि । ।
( पुरुषार्थ सिध्द्युपाय १३६ १ अर्थ : जिस प्रकार नगरों की रक्षा परकोट करते हैं, उसी प्रकार निश्चय से व्रतों की रक्षा शील करते हैं। इसलिए व्रत परिपालनार्थ शीलों का पालन करना चाहिए।
दिव्रत के परिपालन से भव्य बहुत आरंभ से बच जाता है। अनर्थदण्ड उसे अप्रयोजनभूत कार्यों से बचाता है। भोगोपभोग परिमाण व्रत आसक्ति से बचाता है, जिससे व्रती चौर्यादि पाप कर्मों में व परिग्रह के संचय में प्रवृत्त नहीं होता ।
सामायिक मन को पवित्र बनाता है। प्रोषधोपवास के द्वारा इन्द्रियों व मन वश में हो जाते हैं | अतिथि संविभाग लोभ को घटाता है तथा सल्लेखना कषायों को कृश करती है। इस तरह शिक्षाव्रतों का परिपालन मनोशुध्दि व व्रतशुद्धि का प्रमुख हेतु है।
पहले तीन गुणव्रतों का स्वरूप बताया जाता है! दिखत: पं. दौलतराम जी ने लिखा है कि -
पूरब आदि दिशा चड जानो, ईशानादि विदिशि चऊ मानों । अथ ऊरथ मिलि दस दिशि होई, करें प्रमाण व्रती है सोई ।। शीलवान् व्रत धारक भाई, जाके दरशनतै अघ जाई । या दिशिकों एतो ही जाऊँ आगे कबहुं न पाँव धराऊँ ।। या विधि सों जु दिशा को नेमा, करें सुबुद्धि धरि व्रत सौ प्रेमा । मरजादा न उलंघे जोई, दिग्रत धारक कहिये सोई ।
(क्रियाकोष)
दिशाएं दस होती हैं। पूर्व-पश्चिम दक्षिण-उत्तर अग्नेय- नैऋत्य-वायव्य- ऐशान्य
- ऊर्ध्व और अधो इन दश दिशाओं में गमन और आगमन का प्रमाण करना, सो दिव्रत
है।
२. अनर्थदण्ड व्रत : नञ् तत्पुरुष समास में नकार के आगे स्वर आने पर नकार का अन् हो जाता है। न - अर्थः अनर्थ
अर्थ शब्द अनेकार्थ वाची है। यथा-आशय, प्रयोजन, लक्ष्य, उद्देश, अभिलाषा आदि।
सुविधि ज्ञान चक्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.