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गुआ. - २० रत्नमाला
- 491 वर्तमान युग में मुनि कहाँ रहें।
कलौ काले वनेवासो वय॑ते मुनिसत्तमैः ।
स्थीयते च जिनागारे ग्रामादिषु विशेषतः ।। २७. अन्वयार्थ : मुनिसत्तमैः
मुनिश्रेष्ठों को कलो-काल
कलिकाल में बने
वन में वासो
निवास करना वळते
त्याज्य है
और (उन्हें) विशेषतः
विशेष रूप से ग्रामादिषु
ग्रामादिक में जिनागारे
जिनालयों में स्थीयते
रहना चाहिये। अर्थ : कलिकाल में मुनियों को वन में नहीं रहना चाहिये, अपितु उन्हें विशेष करके || ग्रामादिक में अथवा जिनालयों में रहना चाहिये।
भावार्थ : सिध्दान्त और क्रिया दोनों में बहुत अन्तर है। सिध्दान्त सर्वदा अबाधित व परिवर्तन विहीन होते हैं। क्रियाएं द्रव्य-क्षेत्र-काल और भावों के अनुरूप सतत परिवर्तित होती रहती है। _मुनियों को कहाँ रहना चाहिये? यह क्रिया का विषय है। जब कोई भव्य आत्म साधना का लक्ष्य बनाता है, तो वह भोगोपभोगों को तजकर दिगम्बर मुद्रा को धार लेता है। जिसने तीर्थंकर मुद्रा को धारण कर लिया तो उसके लिए महल मसान, काँच-कंचन, मित्र-शत्रु, सुवर्ण-माटी आदि में समत्व भाव आवश्यक है, समत्व की साधना ही उन की चारित्र साधना अथवा आत्म-धर्म की साधना है।
वर्तमान में कुछ लोग "मुनियों को वन में ही रहना चाहिये" इस आग्रह के पक्षधर हैं। वे अपने आग्रह के द्वारा समाज के अनेक भोले श्रावकों में अग्रद्धा-भाव उत्पन्न करने का प्रयत्न कर रहे हैं। ग्यारहवी सदी के महाविद्वान आचार्य पदमनन्दि लिखते हैं कि - संप्रत्यत्र कलौ काले जिनगेहे. मुनिस्थितिः। (पद्मनन्दि पंचविंशतिका ६/६) अर्थात : इस समय यहाँ इस कलिकाल में मुनियों का निवास जिनालयों में हो रहा
मुनियों को वहाँ निवास करना चाहिये, जहाँ उन्हें अपनी साधना के अनुकूल सामग्री
सुविधि ज्ञान पत्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.