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रत्नगाला
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अर्थात : शून्यघर, गिरि. गुफा, वृक्षमूल, धर्मशाला, जिनमन्दिर आदि अपने निमित्त ||न बनाई गई विविक्त वसतिका साधु के योग्य है।
उपर्युक्त गाथा में देवकुले (जिनमन्दिर) तथा आगंतुगार (धर्मशाला) को विविक्त वसतिका | माना है। साधु विविक्त वसतिकाओं में निवास कर सकते हैं।
आ. शुभचन्द्र लिखते हैं कि -
यत्र रागादयो दोषा अजस्त्रं यान्ति लाघवम् | तत्रैव वसतिः साध्वी, ध्यानकाले विशेषतः ।।
(ज्ञानार्णव २८/८)
अर्थ : जिस स्थान में रागदिक दोष निरन्तर लघुता को प्राप्त हो, उसी स्थान में मुनि को बसना चाहिा! तथा ध्यान के काल में तो अवश्य ही योग्य स्थान को ग्रहण करना | चाहिए।
मुनियों को सामान्यतया अब ऐसी वसतिकाओं का चयन करना चाहिये कि,
१. जिस में स्त्री-पुरुष नपुंसकों का आवागमन कम हो। २. जिस में हिंस्त्र श्वापदों से व दुर्जनों से उपसर्ग न हो। ३. जो वर्षा-आतप - हिम आदि की बाधा से वर्जित हो। ४. जो क्षोभक, विकार वर्धक और मोहक न हो। ५, जो नास्तिकों के द्वारा सेवित न हो।
अतः आगम मर्यादा को जान कर ही शब्दोच्चारण होने चाहिये, जिस से मुनिधर्म के | |प्रति अग्रद्धाभाव उत्पन्न न होवें।
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