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. - २०० रत्नमाला
पता ... अत : हिंसापकरण नहीं देना चाहिये, यही हिंसादान विरति है। (क.) अपध्यान विरति : अप यानि कत्सित-खोटा, ध्यान यानि चिन्तन। किसी की हार हो जाये, किसी की धनहानि हो जाये-ऐसा चिन्तन अपध्यान है। आ. समन्तभद्र ने कहा है कि -
वधबन्यच्छेदादेर्वेषाद्रागाध्च परकलबादेः । आध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदाः ||
(रत्नकरण्ड श्रावकाचार-७८) अर्थ : द्वेष से किसी प्राणी के वध, बन्ध और छेदनादि का चिन्तन करना तथा राग से परस्त्री आदि का चिन्तन करना, इसे जिनशासन में अपध्यान नाम का अनर्थदण्ड कहा है।।
अपध्यान से विरक्त होना, अपध्यान विरति है।
(ड) दुःश्रुति विरति : दुर् उपसर्ग कुत्सित अर्थ का प्रतिपादक है। श्रुति का अर्थ शास्त्र | है। जो शास्त्र राग-द्वेष और मोह का वर्धन करते हैं। विषय-कषायों की इच्छा को बढ़ाते हैं. वे कुशास्त्र हैं, उनका पठन-पाठन दुःश्रति है। आचार्य समन्तभद्र ने लिखा है कि -
आरम्भ सङ्ग साहस मिथ्यात्व द्वेष रागमदमदनैः। चेतः कलुषयतां श्रुतिरवधीनां दुःश्रुतिर्भवति।।
(रत्नकरण्ड-श्रावकाचार ७९) अर्थ : आरम्भ, परिग्रह, साहस, मिथ्यात्व, द्वेष, राग, मद और काम भाव के प्रतिपादन द्वारा चित्त को कलुषित करनेवाले शास्त्रों का सुनना दुःश्रुति नाम का अनर्थदण्ड
कुशास्त्रों का पठन-पाठन का त्याग करना, दुःश्रुति विरति है। (इ) प्रमादचर्या विरति : प्रमादस्य चर्या (प्रमाद पूर्वक चर्या करना, प्रमादचर्या है।
प्रमाद को परिभाषित करते हुए भास्करनन्दि आचार्य लिखते हैं कि- प्रमादः कुशलकर्मस्वनादर उच्यते (तत्त्वार्थवृत्ति ८/१) कुशल कर्मों में अनादर कि प्रमाद कहते हैं। उस प्रमाद से युक्त चर्या को, प्रमादचर्या कहते हैं। आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि -
क्षितिसलिलदहन पवनारम्भ विफलं वनस्पतिच्छेदम् । सरणं सारणमपि च प्रमावद्यर्या प्रभाषन्ते ।।
(रत्नकरण्ड श्रावकाचार ८०) अर्थ : प्रयोजन के बिना भूमि को खोदना, पानी का ढ़ोलना, अग्नि का जलाना, पवन का चलाना और वनस्पति का छेदन करना तथा निष्प्रयोजन स्वयं घूमना और दूसरों को घुमाना इत्यादि प्रमाद युक्त निष्फल कार्यों के करने को ज्ञानीजन प्रमादचर्या
सुविधि ज्ञान पत्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.