Book Title: Ratnamala
Author(s): Shivkoti Acharya, Suvidhimati Mata, Suyogmati Mata
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 36
________________ rair. . २० रत्नमाला पात . -: संकल्पी हिंसा का त्याग करता है, यही उसका अणुव्रत है। सत्याणुव्रत : आ समन्तभद्र लिखते हैं कि - स्थूलमलीकं न वदति, न परान वादयति सत्यमपि विपदे | ! यत्तद्वदन्ति सन्त : स्थूलमृषावाद वैरमणम् ।। (रत्नकरण्ड-श्रावकाचार ५५) अर्थ : जो लोकविरुद्ध, राज्यविरुद्ध एवं धर्मविघातक ऐसी स्थूल झूठ न तो स्वयं बोलता है और न दूसरो बुलवाता है, तथा दूसरे की विपत्ति के लिए कारण भूत सत्य को भी न स्वयं कहता है और न दूसरों से कहलवाता है, उसे सन्तजन स्थूल मृषावाद से || विरमण अर्थात सत्याणुव्रत कहते हैं। भय-आशा-क्रोध-हास्य आदि कारणों को सस न बोलना • तथा समय आने पर प्राणी रक्षा के योग्य वचन बोलना द्वितीय अणतत है । आचौर्याणुव्रत : आचार्य कार्तिकेय लिखते हैं कि - जो बहुमुल्लं वत्थु अप्पयमुल्लेण गिण्हेदि । वीसरियं पिण गिण्हदि लाहे थोवे वि तूसेदि ।। जो परवयं ण हरदि माया लोहेण कोहमाणेण | दिढचित्तो सुध्दमई अणुबई सो हवे तिदिओ ।। (स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा - ३३५- - ३३६) अर्थ : जो बहुत मूल्यवाली वस्तु को अल्पमूल्य से नहीं लेता है, दूसरों की भूली हुई भी वस्तु को नहीं ग्रहण करता है, जो अल्पलाभ में भी सन्तोष धारण करता है, जो पराये द्रव्य को माया से, लोभ से, क्रोध से और मान से अपहरण नहीं करता है, जो धर्म में| दचित्त है और शुध्द बुद्धि का धारक है, वह अचौर्याणुव्रत धारी श्रावण है। जल और माटी के अलावा कोई भी स्थूल या सूक्ष्म वस्तु विना स्वामी के दिये ग्रहण || न करना. अर्चार्याणुव्रत है। ब्रह्मचर्याणुव्रत : आ. पूज्यपाद लिखते हैं कि . परेषां योषितो दृष्ट्वा, निजमातृ सुतासमा । कृत्वा स्वदार सन्तोष, चतुर्थ तदणुव्रतम् || (पूज्यपाद श्रावकाचार - २४) अर्थ : दूसरों की स्त्रियों को अपनी माता, बहिन और पुत्री के समान देखकर अपनी स्त्री में संतोष करना, यह चतुर्थ अणुव्रत (ब्रह्मचर्याणुव्रत) है। ___ परस्त्री के साथ भोगाभिलाषा का पूर्णतः त्याग करना तथा स्व-स्त्री में सदैव सन्तोषपूर्वक रहना, ब्रह्मचर्याणुव्रत है। परिग्रह परिमाणाणुव्रत - आ.उमारवामी का निर्देश है कि - धनाधान्यदिकं ग्रन्थं, परिमाय ततो धिके । यत्रिधा निःस्पृहत्वं तत्स्यादपरिग्रहव्रतम् || (उमास्वामी श्रावकाचार ३८२) अर्थ : धन धान्यादिक परिग्रह का परिणाम करके उससे अधिक में मन, वचन काय से निःस्पृहता रखना, सो अपरिग्रह व्रत है । ___ मिथ्यात्व नामक अभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करना, बाह्य दश को मर्यादित करना, वह परिग्रह परिमाण अणुव्रत है। - - - -- - - - -- - - - - - - - - - -- सुविधि ज्ञान चन्द्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद. Lav - - - -

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