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रत्नमाला
पला ..
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निर्वेद : संवेग और निर्वेद में वस्तुतः कोई अन्तर नहीं है। संवेग विधिमुखेन कथन है || | तो निर्वेद निषेधमुखी है। अतः संसार सम्बन्धित अभिलाषाओं का न होना ही, निर्वेद है।
निन्दा : आ. जयसेन ने लिखा है कि - आत्मसाक्षि दोषप्रकटनं निन्दा। (समयसार-तात्पर्यवृत्ति - ३०६/ आत्मसाक्षी में स्वदोषों का प्रकट करना निन्दा है।
गर्दा : आ. जयसेन का कथन है कि गुरु साक्षि दोषप्रकटनं गहा ('समयसार ३०६) गुरु की साक्षी में अपने दोषों को प्रकट करना गर्दा है।
उपशम : आ. पूज्यपाद लिखते हैं कि - आत्मनि कर्मणः स्व-शत्तेः कारणवशादनुभूतिरुपशमः (सर्वार्थसिद्धि २/१) आत्मा में कर्म की शक्ति का कारणवशात् उदय में न आना, उपशम है।
भक्ति : आचार्य पूज्यपाद का कथन है कि भावविशुद्धियक्तोऽनरागो भक्तिः। (सर्वार्थसिध्दि ६/२४) भावों की विशुद्धता से युक्त, गुणों में जो अनुराग होता है, वह भक्ति है।
वात्सल्य : चामुण्डाराय ने लिखा है कि सद्यः प्रसता यथा गौर्वत्से स्निपति तथा चातुर्वर्ये संघेडक्रत्रिम स्नेहकरणं वात्सल्यम् (चारित्रसार)
जैसे सद्यप्रसूता गाय वत्स से प्रेम करती है, उसी प्रकार चातुर्वर्ण्य में तथा संघ में अकृत्रिम स्नेह करना, वात्सल्य है।
अनुकम्पा : आ. अकलंक देव लिखते हैं कि - सर्वप्राणिषु मैत्री अनुकम्पा। (राजवार्तिक १/२/३०) सर्व प्राणियों में मैत्री अनुकम्पा है।
इन आठ गुणों से जो संयुक्त है। यह बताने के लिए श्लोक में "संवेगादि परः" विशेषण प्रयुक्त हुआ है।
शान्त : शान्त शब्द अनेकार्थक है। इसके निम्नांकित अर्थ है । - प्रसन्न किया हुआ, दमन किया हुआ, पवित्र, आवेश रहित, समाप्त किया हुआ आदि। १. जो आत्मस्वभाव में प्रसन्न है, वह शान्त है। २. जिसने इन्द्रियों का दमन किया है, वह शान्त है। ३. जो तपादि गुणों से पवित्र है, वह शान्त है। ४. जो कषायों के आवेश से रहित है, वह शान्त है। ५. जिसने मोहनीय दर्शन को समाप्त किया है, वह शान्त है।
तत्त्वनिश्चयवान् : श्लोकान्तर्गत प्रयुक्त तृतीय विशेषण यह बताता है कि अजरामर पदाभिलाषी को तत्त्वों का ज्ञाता होना आवश्यक है।
तत्त्व शब्द का अर्थ करते हुए अकलंक देव लिखते हैं कि - योऽर्थो यथा अवस्थितस्तथा तस्य भवनमित्यर्थः (राजवातिक १/२/4) तत्त्व शब्द का स्पष्ट अर्थ है - जो पदार्थ जिस रूप से है, उसका उसी रूप से होना।
जीव, अजीव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। इसमें से जीव ज्ञायक एवं सातों ही तत्त्व ज्ञेय हैं। जीव, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये तत्त्व उपादेय व शेष हेय हैं। इत्यादि रूप से तत्त्व का ज्ञान आवश्यक है।
इन तीन विशेषणों से संयुक्त जीव जन्म जरा और मरण से रहित मोक्ष पद को प्राप्त || करता है!
सुविधि ज्ञान चन्द्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.
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