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.. - २० रत्नमाला
___ ... 15 आचार्य प्रभाचन्द्र ने निरारम्भ का अर्थ करते हुए कहा है कि, जिसने कृष्यादि व्यापार को | छोड दिया है, वह निरारम्भ है।
यथा परित्यक्त कृष्यादि व्यापारःI (रत्नकरण्ड श्रावकाचार-१०)
३. नित्यानन्द पदेच्छु : स्व.समय की साधना में निरत साधु गण प्रति समय अतीन्द्रिय सुख में मग्न रहते हैं। प्रतिसमय असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा करनेवाले वे | तपोधन सम्पूर्ण कार्य मोक्ष पाने के लिए करते हैं, क्योंकि मोक्ष में नित्य आनन्द है। अतः ग्रंथकार ने मुनि को नित्यानन्द पदेच्छु कहा है।
४. धर्मदिक : चारित्तं खलु धम्मो (प्रवचनसार-७) यथार्थतः चारित्र ही धर्म है। अथवा सदृष्टि ज्ञान वृत्तानि धर्मम् (रत्नकरण्ड श्रावकाचार-३)
अर्थ : सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र ही धर्म है। मुनिराज उस धर्म की वृद्धि करने वाले हैं।
५. कर्मधिक : आत्मसाधना का फल कर्म विप्रमोक्ष है। मुनिराज प्रति समय सातिशय तप व परम संयम के द्वारा कर्मों का विनाश करते हैं, अतएव ग्रंथकार ने उन्हें कर्मधिक | कहा है। ___ इन पाँच विशेषणों से विशिष्ट साधु ही गुरु है।
सुविधि शाम चरिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.