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पुराणनिर्माणाधिकरणम्
मन्त्र ब्राह्मण से पूर्व ब्रह्माण्डपुराणवेद श्री ओझाजी का मन्तव्य है कि सर्वप्रथम एक 'ब्रह्माण्डपुराण' नाम का ऋगादि की भाँति विशेष वेद था जिसका आरम्भ 'इदं वा अग्रे.' जैसे वाक्यों से था। यह अनेक मन्त्रों और ब्राह्मणों से पहले अथवा उनके साथ था।
शतपथब्राह्मण (के उपनिषत्-बृहदारण्यकोपनिषत्, २.४.१० तथा ४.५.११) आदि के 'ऋग्वेदः यजुर्वेद.' जैसे वचनों में आये 'पुराण' पद से उसी ब्रह्माण्डपुराण नाम के वेदविशेष का बोध होता है। यह पुराण पुरावृत्त परम्परा का कथन करता है तथा ब्रह्माण्ड की सृष्टि का प्रतिपादन करता है अतः इसे यह ब्रह्माण्डपुराण नाम दिया गया एक संज्ञा के रूप में।
सामान्य अध्ययन का यह परिणाम नहीं है अपितु दिवानिशम् वाङ्मय के गाढपरिशीलन एवं क्रान्तदृष्टि का परिणाम है। इस तथ्य को वे 'विज्ञायते' क्रियापद से व्यक्त कर रहे हैं। यह विषय मेरे मन मस्तिष्क का सदा जागरूक, आत्मभावापन्नता को प्राप्त नित्यज्ञान है जो जीवन की अनुभूति से साकार है, इस भाव से प्राचीन काल में ऋषि, आचार्य आदि 'विज्ञायते' का प्रयोग करते थे। उदाहरण के रूप में निरुक्त में महर्षि यास्क के ऐसे. वाक्य देखे जा सकते हैं। निदर्शन रूप में कुछ स्थल प्रस्तुत हैं... (क) शक्वर्य ऋचः शक्नोतेः, तद्यदाभि व॒त्रमशकद्धन्तुं तच्छक्वरीणां शक्वरीत्वम् इति विज्ञायते।१.८।
___ (ख) इन्धेभूतानीति वा (इन्द्रः) तद् यदेनं प्राणैः समेधयँस्तदिन्द्रस्येन्द्रत्वम्' इति विज्ञायते।१०.८.।
(ग) अनुमति, राका एवं सिनीवाली कुहू के याज्ञिक परम्परागत अर्थ की पुष्टि में ब्राह्मणवाक्य इति विज्ञायते' द्वारा
“(१) या पूर्वा पौर्णमासी सानुमतिः, या उत्तरा सा राका, इति विज्ञायते।११/२९ (२) या पूर्वामावास्या सा सिनीवाली योत्तरा सा कुहूः इति विज्ञायते।११.३०।
(घ) सविता के निर्वचन में यजुर्वेद के सवितृदेवतात्मक दो पशुओं के साम्य से 'विश्वारूपाणिः' के अर्थ की दृढ़ता को प्रमाणित करते हुए यास्क
(१) अधोरामः सावित्रः (यजु. २९.५८) इति पशुसमाम्नाये विज्ञायते। - (२) कृकवाकुः सावित्रः (यजु. २४.३५) इति पशुसमाम्नाये विज्ञायते।१२.१३।" यजुर्वेद को प्रस्तुत करते हैं।
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