Book Title: Puran Nirmanadhikaranam
Author(s): Madhusudan Oza, Chailsinh Rathod
Publisher: Jay Narayan Vyas Vishwavidyalay
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पुराणनिर्माणाधिकरणम् "यजूंषि तानि मे देहि यानि सन्ति न मे गुरौ" एवं प्रार्थितो भगवान् सविता अयातयामसंज्ञानि यजूंषि तस्मै ददौ यानि तद्गुरुरपि न वेत्ति। अथ यतः सूर्योऽश्वोऽभवत्। तत एव तानि यजूंषि अधीयानाः वाजिनः समाख्याताः। तेषां वाजिनां पञ्चदशशाखाभेदा अभूवन् । याज्ञवल्क्यस्य शिष्यैः कण्वादिभिः पञ्चदशभिः प्रवर्त्तित्वादिति दिक्। तदेवमुभये मिलित्वा सप्तविंशतिर्यजुःशाखाः पराशरकालपर्यन्तमभूवन्। तथाचोक्तं तेन पुराणानां तृतीये विष्णुपुराणे
यजुर्वेदतरोः शाखाः सप्तविंशन्महामुनिः।
वैशम्पायननामासौ व्यासशिष्यश्चकार वै॥ (वि.पु. ३/५/१) तदनन्तरन्तु उदीच्य मध्यदेश्यप्राच्यादिभेदेन चरकाध्वर्युणां षड्शीतिर्भेदा अभवन्। अतएव पुराणानामष्टादशे ब्रह्माण्डपुराणे सम्भूय एकाधिकशतमध्वर्युशाखा. उक्ताः। शतमेकाधिकं ज्ञेयं यजुषाम् ये विकल्पकाः॥
(ब्र.पु. अनु. पा. अ. ३५ श्लो. ३०) “मुझे उन यजु मन्त्रों को दीजिए जो मेरे गुरु को भी ज्ञात न हों"
इस प्रकार प्रार्थना करने पर भगवान सूर्य ने अयातयाम नामक, यजु मन्त्र उसको दिये जिनको उसके गुरु भी नहीं जानते हैं। चूँकि सूर्य अश्व हुआ इसीलिए यजु मन्त्रों का अध्ययन करने वाले ‘वाजी' कहे गये उन वाजियों के पन्द्रह शाखा भेद हुए। क्योंकि याज्ञवल्क्य के कण्वादि पन्द्रह शिष्यों के द्वारा प्रवर्तित किये गये थे। इस प्रकार दोनों मिलाकर सत्ताईस यजु शाखाएँ पराशर के काल तक हो गयी जैसा कि उन्होंने पुराणों में तृतीय विष्णु पुराण में कहा
व्यास के शिष्य वैशम्पायन नामक महामुनि ने यजुर्वेद रूपी वृक्ष की सत्ताईस शाखाएँ फैलायी। (विष्णु पुराण तृतीय अंश ५/१) ।
उसके अनन्तर उत्तर देश से सम्बन्धित, मध्य देश से सम्बन्धित तथा प्राची (पूर्व) देशों से सम्बन्धित चरकाध्वर्युओं के भी छियासी भेद हो गए। इसलिए पुराणों में अठारहवें ब्रह्माण्ड पुराण में कुल मिलाकर एक सौ एक अध्वर्यु शाखाएँ कही गयी है
“यजु मन्त्रों के जो भेद हैं वे एक सौ एक जानने चाहिए" (ब्र.पु. अनु. पाद. अ. ३५ श्लोक ३०)
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