Book Title: Puran Nirmanadhikaranam
Author(s): Madhusudan Oza, Chailsinh Rathod
Publisher: Jay Narayan Vyas Vishwavidyalay

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Page 103
________________ पुराणनिर्माणाधिकरणम् अथ सामवेदश्रावको भगवान् जैमिनिरादौ तां संहितां द्वेधाकृतां क्रमेणैकैकां स्वपुत्राय सुमन्तवे स्वपौत्राय सुत्वने चाध्यापयामास । ततः सुत्वनः पुत्र सुकर्मा साहस्रं संहिताभेदं चकार । तमेतं संहिताभेदं तस्य सुकर्म्मणः शिष्यौ जगृहाते । एकः कौशल्यो हिरण्यनाभः, अपरः पौष्पिञ्जिश्च । तस्यैतस्य हिरण्यनाभस्य पञ्चशतशिष्याः पञ्चशतसंहिता अधीयाना उदीच्यसामगा उच्यन्ते । एवमन्ये तस्यैव पञ्चशतशिष्याः अन्यपञ्चशतसंहिताध्यायिनः प्राच्यसामगा उच्यन्ते । तत्रापि हिरण्यनाभस्योदीच्यसामगेषु पञ्चशतशिष्येषु मध्ये कश्चन कृतनामा शिष्यः स्वशिष्येभ्यश्चतुर्विंशतिसंहिताः कृत्वा प्रोवाच । तैश्चाप्यसौ सामवेदः शाखाभिर्बहुलीकृतः ॥ अथापरः पौष्पिञ्जिरेतां संहितां चतुर्द्धाकृत्वा चतुरः शिष्यान् प्रत्येकमग्राहयत् । ते च यथा- — लौकाक्षिः, कुथुमि:, कुसीदी, लाङ्गली च । अथ तच्छिष्य-प्रशिष्यादिभिरप्यसौ सामवेदः शाखाभिर्बहुलीकृतः । अतः परमथर्ववेदश्रावकः सुमन्तुः कबन्धं नाम शिष्यमध्यापयामास । स च कबन्धस्तां संहितां द्विधाकृत्वा देवदर्शाय पृथ्याय च ग्राहयामास । तत्र देवदर्शः स्वसंहितां चतुर्धा कृत्वा ९९ इसके पश्चात् सामवेद के श्रावक भगवान् जैमिनि ने आदि में उस संहिता को दो भागों में विभक्त कर क्रमशः एक-एक अपने पुत्र सुमन्तु तथा अपने पौत्र सुत्वा को अध्यापन किया। उसके पश्चात् सुत्वा के पुत्र सुकर्मा ने एक हजार संहिता भेद कर दिए। उस संहिता भेद का सुकर्मा के दो शिष्यों ने ग्रहण किया एक कौशल्य हिरण्यनाभ और दूसरा पौष्पिञ्जि। उस हिरण्यनाभ के पाँच सौ शिष्य पाँच सौ संहिताओं का अध्ययन करते हुए प्रसिद्धि प्राप्त कर उदीच्य सामवेद कहे गये हैं । इस प्रकार उसी के अन्य पाँच सौ शिष्य पाँच सौ संहिताओं का अध्ययन कर 'प्राच्य सामवेद' कहे गये उनमें भी हिरण्यनाभ के उदीच्य सामवेद के पचास शिष्यों में से किसी कृत नामक शिष्य ने अपने शिष्यों के लिए चौबीस संहिताएँ करके पटाई। उनके द्वारा ही वह सामवेद अधिक शाखाओं वाला कर दिया गया। इसके पश्चात् दूसरे पौष्पिञ्जि नामक शिष्य ने इस संहिता को चार भागों में विभाजित कर चार शिष्यों में प्रत्येक के एक-एक संहिता का अध्यापन करवाया वे इस प्रकार हैं—लोकाक्षि, कुथुमि, कुसीदी तथा लाङ्गली । उनके शिष्यों प्रशिष्यों के द्वारा भी सामवेद की अनेक शाखाएँ फैला दी गयी । इसके पश्चात् अथर्ववेद के श्रावक सुमन्तु ने कबन्ध नामक शिष्य को अध्यापन कराया। उस कबन्ध ने उस संहिता को दो भागों में विभक्त कर देवदर्श तथा पथ्य को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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