Book Title: Puran Nirmanadhikaranam
Author(s): Madhusudan Oza, Chailsinh Rathod
Publisher: Jay Narayan Vyas Vishwavidyalay

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Page 101
________________ पुराणनिर्माणाधिकरणम् तदेतत्परावमानकारि गौरवगर्भितं वचनं श्रुत्वा क्रुद्धो वैशम्पायनो याज्ञवल्क्यं प्रत्याह : निस्तेजसो वदस्येतान् यस्त्वं ब्राह्मणपुङ्गवान्। तेन शिष्येण नार्थोऽस्ति ममाज्ञाभङ्गकारिणा॥ मुच्यतां यत् त्वयाधीतं मत्तो विप्रावमानक। याज्ञकल्क्यस्ततः प्राह भक्त्यैतत्ते मयोदितम्॥ ममाप्यलं त्वयाधीतं यन्मया तदिदं द्विज। इत्युक्त्वा रुधिराक्तानि सरूपाणि यजूंषि छयित्वा तस्मै दत्वा चासौ मुनिः स्वेच्छया ययौ। अथापरे शिष्या गुरुणाज्ञप्ता याज्ञवल्क्यविसृष्टानि तानि यजूंषि तित्तिरीभूत्वा जगृहुः । तेनैते तैत्तिरीया अभवन्। एवं गुरुप्रेरितैर्यैर्ब्रह्महत्याव्रतं चीर्णं ते चरणादेव निमित्ताच्चरकाध्वयंवोऽभूवन्। एवं तेभ्यः प्रवर्त्तिता सा यजुःसंहिता तैत्तिरीयसंहितानाम्ना प्रसिद्धिमगमत्। अथ याज्ञवल्क्यस्तु प्राणायामपरायणः प्रयतस्तत आरभ्य यजूंष्यभिलषन् सूर्य्य तुष्टाव। तुष्टश्च भगवान् सूर्यो वाजिरूपधर: कामं वियतामिति प्राह। तदा याज्ञवल्क्यः प्रणिपत्य प्रार्थयामास- . ___ दूसरों का अपमान करने वाले गौरव युक्त (अर्थात् बड़प्पन के भाव से भरे) इस वचन को सुनकर क्रुद्ध वैशम्पायन ने याज्ञवल्क्य को कहा-- हे याज्ञवल्क्य जो तुम इन श्रेष्ठ ब्राह्मणों को निस्तेज कहते हो ऐसे मेरी आज्ञा का भंग करने वाले शिष्य से मेरा कोई प्रयोजन नहीं है। ब्राह्मणों का अपमान करने वाले! तुम्हारे द्वारा मुझसे जो अध्ययन किया गया है वह त्याग दो। तत्पश्चात् याज्ञवल्क्य ने कहा मैंने यह आपके प्रति भक्ति के कारण ही कहा है मुझे भी आप जैसे गुरु से बस अर्थात् कुछ नहीं करना, जो कुछ आपसे मैंने पढ़ा वह यह रहा यह कहकर रूधिर से सने हुए वमन द्वारा निकाले यजु मन्त्रों को वहाँ छोड़कर वह मुनि स्वेच्छा से चला गया। उसके पश्चात् अन्य शिष्यों ने गुरु से आज्ञा प्राप्त किये हुए याज्ञवल्क्य के द्वारा छोड़े गए उन यजु मन्त्रों का तीतर पक्षी बनकर ग्रहण किया। इसलिए ये शिष्य तैत्तिरीय हुये। इस प्रकार गुरु के द्वारा प्रेरित जिन ब्राह्मण शिष्यों ने ब्रह्म हत्या के व्रत का अनुष्ठान किया उस अनुष्ठान के आचरण के निमित से ही ये चारकाध्वर्यु हो गये। इस प्रकार उनके द्वारा प्रवर्तित वह यजु संहिता तैत्तिरीयसंहिता के नाम से प्रसिद्ध हुई। । इसके पश्चात् प्राणयामपरायण संकल्पनिरत याज्ञवल्क्य ने उसी समय से यजुओं को चाहते हुए सूर्य को सन्तुष्ट किया। सन्तुष्ट भगवान सूर्य ने अश्व का रूप धारण कर कहा-मनचाहा वर मांगो तब याज्ञवल्क्य ने प्रणाम करके प्रार्थना की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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