Book Title: Puran Nirmanadhikaranam
Author(s): Madhusudan Oza, Chailsinh Rathod
Publisher: Jay Narayan Vyas Vishwavidyalay

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Page 96
________________ पुराणनिर्माणाधिकरणम् र्होत्रमभूत्। य आध्वर्य्यवं करोति सोऽध्वर्युर्नाम, येन पुनस्तदुपयोगिन्य ऋचः प्रयुज्यन्ते स होता, यस्तु साममन्त्रान् प्रयुङ्क्ते स उद्गाता। अथ यः सर्वविद्यो भवति स ब्रह्मा। तदेवं चतुर्णामपि ऋत्विजां प्रयोगसौकऱ्यार्थं प्रत्येकप्रयोज्यमन्त्रान् पृथक् पृथक् पद्धतिरूपेण सङ्कलय्य होत्रोपयुक्तस्य ऋङ्मन्त्रसंग्रहस्य होत्रक्रमनिर्दिष्टस्य ऋग्वेदसंज्ञा-आध्वर्यवोपयुक्तस्य यजुर्मान्त्रसंग्रहस्य यजुर्वेदसंज्ञा-औद्गात्रोपयुक्तस्य साममन्त्रसंग्रहस्य तत्क्रमनिर्दिष्टस्य सामवेदसंज्ञा-ब्रह्मकर्मोपयुक्तस्य चाङ्गिरोमन्त्रसंग्रहस्य आथर्वणिकक्रमनिर्दिष्टस्य अथर्ववेद संज्ञा न्यरूप्यन्त तदेवमेकस्मिन्नेव कर्त्तव्ये यज्ञे ऋत्विजां भेदात् तत्तत्सौकर्योद्देशेन कल्पिताः एकस्यैव वेदस्य चत्वारो भागा इति सिद्धम्। चतुर्ध्वपि चैतेषु भागेषु मन्त्रास्तु त्रिविधा एव। गद्यप्रधाना यजुर्मन्त्रा-पद्यप्रधाना ऋग्मन्त्रा:-गीतिप्रधानाश्च साममन्त्राः इति। एवं हि तिम्र एव रचना भवन्तीति रचनाभेदेन सर्वोवेदत्रयीशब्देनाभिनीयते। एवञ्च यज्ञऋत्विजश्चत्वारः इति यज्ञक्रियानिबन्धनञ्च चातुर्विध्यं वेदस्य सिद्ध्यति। ऋत्विज वाला हो गया। जो आध्वयंव कर्म करता है वह ऋत्विक् अध्वर्यु कहलाता है जिसके द्वारा यज्ञ की उपयोगी ऋचाएँ प्रयुक्त की जाती है वह होता है, जो साम मन्त्रों का प्रयोग करता है वह उद्गाता है और जो सबका ज्ञाता है वह ब्रह्मा है। इस प्रकार चारों ही ऋत्विजों के प्रयोग की सुविधा के लिए प्रत्येक के द्वारा प्रयोज्य मन्त्रों का पृथक् पृथक् पद्धति रूप से संकलन किया गया तथा हौत्र कर्म के उपयोगी अत एव होत्र क्रम में निर्दिष्ट ऋग्वेद के मन्त्र संग्रह का ऋग्वेद नाम हुआ। आध्वर्य्यव कर्म के लिए उपयुक्त यजुर्वेद के मन्त्रों के संग्रह की यजुर्वेद संज्ञा हुई। उदगाता के लिए उपयुक्त, उस कर्म के लिए निर्दिष्ट साम मन्त्र संग्रह की सामवेद संज्ञा हुई। ब्रह्म कर्म के लिए उपयुक्त अङ्गिरा के मन्त्र संग्रह की आथर्वणिक क्रम से निर्दिष्ट होकर अथर्व संज्ञा हुई। इस प्रकार अनुष्ठेय एक ही यज्ञ में ऋत्विजों के भेद से उनकी सुविधा के उद्देश्य से एक ही वेद के चार भाग हैं यह सिद्ध हैं। चारों ही इन भागों में मन्त्र तो तीन प्रकार के ही है—गद्य की प्रधानता वाले यजुर्मन्त्र, पद्य-प्रधान ऋङ्मन्त्र और गीति प्रधान साम मन्त्र। इस प्रकार तीन प्रकार की ही रचना होती है इसलिए रचना भेद से सम्पूर्ण वेद 'त्रयी' शब्द से कहा जाता है। इस प्रकार यज्ञ के ऋत्विज् चार होते हैं इसलिए यज्ञ क्रिया के लिए ग्रन्थबद्धता के कारण वेद का चातुर्विध्य सिद्ध होता है। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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