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पुराणनिर्माणाधिकरणम्
एक आसीद् यजुर्वेदस्तं चतुर्धा व्यकल्पयत् । चतुर्होत्रमभूत्तस्मिंस्तेन यज्ञमथाकरोत् ॥ १ ॥। ३.४.११ आध्वर्य्यवं यजुर्भिस्तु ऋग्भिर्होत्रं तथा मुनेः । औद्गात्रं सामभिश्चक्रे ब्रह्मत्वं चाप्यथर्वभिः ॥ २ ॥
ततः स ऋच उद्धृत्य ऋग्वेदं कृतवान् मुनिः । यजूंषि च यजुर्वेदं सामवेदं च सामभिः ॥३॥
राज्ञां चाथर्ववेदेन सर्वकर्माणि च प्रभुः । कारयामास मैत्रेय ब्रह्मत्वं च यथास्थिति ॥४॥
सोऽयमेको यथावेदतरुस्तेन पृथक्कृतः ।
चतुर्धाथ ततो जातं वेदपादपकाननम् ॥५ ॥ (३/४/११-१४) यज्ञार्थं प्रवृत्तः पूर्वमेक एव यजुर्वेदो नाम वेद आसीच्चतुः पादो लक्षमितः । तस्मिन्नेकस्मिन्नेव यथोपयोगमोतप्रोता ऋग्यजुसामात्मका मन्त्रा आसन् । तत्र यज्ञसौकर्य्यार्थं चातु
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पुरा एकमात्र यजुर्वेद था, उसको चार भागों में कल्पित किया इस प्रकार वह चार ऋत्विजों के उपयोग वाला हो गया और उससे यज्ञ विधान किया गया ॥ १ ॥
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मुने! यजुर्वेद के द्वारा आध्वर्य्यव, ऋग्वेद के द्वारा हौत्र सामवेद के द्वारा उद्गानृता और अथर्ववेद के द्वारा ब्रह्मत्व की कल्पना की ॥२॥
तत्पश्चात् उस मुनि ने ऋचाओं को उद्धृत कर ऋग्वेद को संकलित किया इस प्रकार. यजुओं से यजुर्वेद को तथा सामों से सामवेद को संकलित किया ॥ ३ ॥
अथर्ववेद से उसने राजाओं के सारे कर्मों को करवाया तथा इसी से यथास्थिति ब्रह्मत्व स्थापित हुआ ॥४ ॥
जिस प्रकार इस एक वेद वृक्ष को वेद व्यास ने पृथक् किया उस रूप से वेद वृक्षों का वन चार प्रकार का हो गया ॥ ५ ॥
सबसे पहले यज्ञ के लिए प्रवृत्त एक ही यजुर्वेद नामक वेद था जो चार पादों वाला और एक लाख मन्त्रों वाला था । उस एक में उपयोग के अनुसार ऋग्, यजु और साम के मन्त्र ओतप्रोत थे। जो यज्ञ की सुविधा के लिए चार होत्र वाला अर्थात् चार
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