Book Title: Puran Nirmanadhikaranam
Author(s): Madhusudan Oza, Chailsinh Rathod
Publisher: Jay Narayan Vyas Vishwavidyalay

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Page 43
________________ पुराणनिर्माणाधिकरणम् आरभ्य भवतो जन्म भावन्नन्दाभिषेचनम्। एतद् वर्षसहस्रं तु शतं पञ्चदशोत्तरम् ॥ १२.२.२६ शुक परिक्षित् को कह रहे हैं कि आपके जन्म से लेकर नन्द के अभिषेक का काल १११५ वर्षों का है। यहाँ का यह योग १११५ पूर्व में पृथक्-पृथक् दिये राजवंशों के योग (१०००+१३८+३६०) १४९८ से पृथक् प्राप्त होता है जबकि तीनों का योग बताने के लिए ही यह पद्य है। अन्य पुराणों में १०००+१३८+३६२ वर्ष हैं जिनका योग १५०० वर्ष वहाँ बताया गया है। भागवत में केवल दो ही वर्ष कम है शिशुनागों के ३६२ के स्थान पर ३६० होने से। इसे भागवत की अनवधानता ही कहना पड़ेगा, यहाँ कोई सिद्धान्त अथवा मतभेद वाली बात भी नहीं है। विवश होकर श्री श्रीधर स्वामी को लिखना पड़ा वर्ष सहस्रं पञ्चदशोत्तरं शतं चेति कयापि विवक्षयावान्तरसंख्येयम्। वस्तुतस्तु परिक्षिनन्दयोरन्तरं द्वाभ्यां नूनं वर्षाणां सार्धसहस्रं भवति। यतः परिक्षित्समकालं मागधं मार्जारिमारभ्यरिपुजयान्ता विंशतिराजानः सहस्रं वत्सरं भोक्ष्यन्तीत्युक्तं नवमस्कन्धे 'ये बार्हद्रथभूपाला भाव्याः साहस्रवत्सरम्' इति। ततः परं पञ्च प्रद्योतना अष्टत्रिंशोतरं शतम्। शिशुनागाश्च षष्ट्युत्तरशतत्रयं भोक्ष्यन्ति पृथिवीमित्यैवोक्तत्वात्।। _ विष्णु पुराण की व्याक्या में श्री स्वामी ‘पञ्चशतोत्तरं वर्ष सहस्रम्' लिखते हुए विष्णु पुराण के ही राजकुलों के पृथक् पृथक् भोग्य वर्षों के आधार पर प्राप्त १५०० वर्षों की संख्या प्राप्त करते हैं तथा योग में हेतु बताते हैं 'पञ्चशताब्दत्वस्योक्तत्वात्। जो कुछ जिस प्रकार पढ़ दिया गया है. वह कर्ता के प्रमाद से अथवा लिपिकर्ता के, इस प्रकार के अनुसन्धान के बिना ही उसके जैसे तैसे भी समर्थन की वृत्ति से भाविपीढ़ियों को भ्रम ही मिला है, जैसे यहीं विष्णुचितीय में एतद्वर्ष सहस्रं तु ज्ञेयं पञ्चाशदुत्तरम्' (४.२४.१०४) में पञ्चाशदुत्तर की व्याख्या में लिखा गया है ‘एतद् वर्षसहस्रं पञ्चाशदधिकं शुद्धक्षत्रवंशोपेतं ज्ञेयम्। ततः प्रद्योतनादि वंशान्तरसञ्चारस्योक्तत्वादिति-अर्थः, न तु कालमात्रस्य संख्येयम्'। इसका अभिप्राय है कि यहाँ विष्णु पुराण में १०५० वर्ष इस अभिप्राय से बताये गये हैं कि ये 'शुद्ध क्षत्रियवंश' वर्ष हैं, इसके पश्चात् प्रद्योतन आदि के वंश होंगे। वस्तुतः यह पूर्ण संख्या योग नहीं है। यह अशुद्ध व्याख्या है। वास्तविकता यह है कि ‘पञ्चशतोत्तरम्' ही पाठ सम्पूर्ण योग फल का है किन्तु प्रमाद वश कहीं ‘शतं पञ्चदशोत्तरम्' तो कहीं पञ्चाशदुत्तरम् हो गया है। ‘पञ्चशतोत्तर' से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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