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पुराणनिर्माणाधिकरणम् जैसे ब्रह्मा की 'ब्रह्माण्ड पुराण वेद संहिता थी' वैसी इस द्वापर में श्रीकृष्ण द्वैपायन की. एक पुराण संहिता थी जिससे वर्तमान पुराणों का विकास हुआ।
पुराणवित् पण्डित अनन्त शर्मा ने 'पुराण, वेद, वेदव्यास और उनकी परम्परा' नामक शोध-प्रबन्ध में सप्रमाण सिद्ध किया है कि "व्यास अठारह पुराणों के रचनाकार नहीं हैं, अपितु अठारह प्रकार से परिच्छिन्न पुराणसंहिता के रचनाकार हैं। ये व्यास वसिष्ठ के प्रपौत्र, शक्ति के पौत्र, और पराशर के पुत्र थे। इनके शिष्य सूतपुत्र लोमहर्षण थे। लोमहर्षण इस पुराणसंहिता का पुनः सम्पादन करके इसे सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, वंश्यचरि, मन्वन्तर, इन पाँच से परिच्छिन्न संहिता बनाते हैं जो लोमहर्षणीय संहिता कहलाती है।
लोमहर्षण अपनी इस संहिता का प्रवचन अपने छह शिष्यों को कहते हैं। उनमें से तीन शिष्य अपनी-अपनी संहिता तैयार करते हैं। लोमहर्षण की संहिता के साथ ये कुल चार हो जाती हैं।
ये चार संहिताएँ ही वर्तमान सभी पुराणों की मूल है ऐसा स्पष्ट उल्लेख विष्णु पुराण में महर्षि पराशर का है। आज ये चार संहिताएँ नहीं मिलती हैं।
लोमहर्षण ऋषियों के आश्रमों में जा-जा कर पुराण सुनाते हैं। आश्रम अनेक हैं, अतः वहाँ के कुलपति तथा ऋषियों की समय-समय पर की गयी जिज्ञासाओं के उत्तर में कथा का क्रम भिन्न-भिन्न हो जाता है।
कभी-कभी लोमहर्षण अपने पुत्र उग्रश्रवा को भी कथा सुनाने हेतु भेज देते हैं। उग्रश्रवा की परीक्षा की दृष्टि से ऋषि प्रारम्भ में ही नाना प्रकार के प्रश्न कर लेते हैं। उनके प्रश्नों के उत्तर के अनुक्रम में उग्रश्रवा कथा कहते . हैं। वे कही गयी इन कथाओं को घर पर आकर लेखबद्ध भी कर लेते थे। अतः किसी एक ही पुराण के दो-दो अथवा उससे भी अधिक क्रम हो जाते थे। एक क्रम लोमहर्षण का था ही। यह एक ही पुराण की भिन्न रूपता का कारण रहा है। इनमें कहीं कोई प्रक्षेप नहीं है। यह ओझाजी की सुस्पष्ट मान्यता है। वे यहाँ अन्य मत भी प्रस्तुत करते हैं। ये मत ठीक नहीं है, यह इस प्रकार मत प्रस्तुत करने से समझ में आ जाता है, जैसे
तां (लौमहर्षणीं नाम संहितां) च पुनः षड्भ्यः स्व शिष्येभ्यो ददौ (लोमहर्षणः), १ ते यथा १.सुमतिः २ अग्निवर्चाः ३ मित्रयुः ४ सुधर्मा ५ अकृतव्रणः ६ सोमदत्तिः। एत एव गोत्रनाम्नां क्रमेण आत्रेयः भारद्वाजः वसिष्ठः शांशसापयनः काश्यपः सावर्णिः इत्याख्यायन्ते। त एते षडपि पुनस्तस्या लौमहर्षण्या मूलसंहिताया आदिसंहिता याश्च बादरायण्या आधारेण स्वस्वेच्छानिबद्धाः षट् संहिता रचयामासुः ।.....तदित्थं साकल्येनाष्टौ संहिताजाताः इति केचित्। ।
इस 'इति केचित्' के द्वारा कतिपय अन्य लोगों का मत ओझाजी ने दिया। इसके साथ ही वे वायु और विष्णु पुराणों के अनुसार चार संहिताओं की पुष्टि करते हैं
वायुविष्णुपुराणयोस्तु चतस्र एव संहिता उच्यन्ते। इस प्रकार इन चार संहिताओं का क्रम बताकर तथा इनके आधार पर ही उग्रश्रवा के द्वारा पुराण कथा का विस्तार बताकर ओझाजी ने पुराणावतार का पूरा क्रमिक इतिहास यहाँ बता दिया है।
स्थान-स्थान पर भगवान कृष्ण द्वैपायन व्यास को इन पुराणों ने ही १८ पुराणों का रचयिता कहा है उसका भी समाधान इससे ही ओझाजी कर देते हैं कि इन सभी पुराणों की ये संहिताएँ,जो लोमहर्षण तथा उनके तीन शिष्यों की निर्मित है पूर्णतया आधार हैं, इनका आधार व्यास संहिता है अतः इस मूल आधार को लेकर उग्रश्रवा १८ पुराणों को व्यास निर्मित कह देते हैं जो परम गुरु के प्रति कृतज्ञता का सहज भाव है।
पद्मपुराण के प्रमाण पर ओझाजी बताते हैं कि लोमहर्षण १. ब्राह्म २. पाद्म ३. वैष्णव ४. कौर्म ५. मात्स्य ६. वामन ७.वाराह ८. ब्रह्मवैवर्त ९. नारदीय और १०. भविष्य पुराण सुनाकर जब आग्नेय पुराण सुना रहे होते हैं तो वहाँ नैमिषारण्य में आये हुए बलभद्र इन्हें कथा सुनाते देखते हैं। वे देखते हैं कि
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