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पुराणनिर्माणाधिकरणम् नैमिषं मिश्रकं नाम समाहूतो मुनीश्वरैः। तत्र सूतं समासीनं दृष्ट्वा त्वध्यासनोपरि॥४॥ चुक्षुभे भगवान् रामः पर्वणीव महोदधिः । आषाढशुक्लद्वादश्यां पार्वणाहनि पार्वति ॥५॥ पूर्वार्द्धयामवेलायां भावित्वात् कृष्णमायया। मुग्धो दर्भकरो रामः प्राहरल्लोमहर्षणम्॥६॥ ततो मुनिगणाः सर्वे हाहाकारपरायणाः। बभूवुर्नगजेऽत्यर्थं शोकदुःखाकुलान्तराः ॥७॥ ऊचुश्च रामं लोकेशं विनयेन क्षमापराः। . राम राम महाबाहो भवता लोककारिणा॥८॥ अजानतेवाचरिता हिंसा ब्रह्मवधाधिका। व्यासशिष्यो ह्ययं साक्षात्पुराणर्षिर्महातपाः॥९॥
जब तीर्थ यात्रा में बलदेव नैमिषारण्य में श्रेष्ठ मुनियों के द्वारा बुलाये गये मिश्रक में आये तब उच्च आसन पर विराजमान सूत को देखकर पौर्णमसि पर्व में महासागर की तरह भगवान् बलराम क्षुब्ध हो गये॥४॥
हे पार्वति! आषाढ़ शुक्ल द्वादशी में पूर्व अर्द्धयाम वेला में कृष्ण माया से (भवितव्यता से) मुग्ध हाथ में दर्भ लिए हुए बलराम ने लोमहर्षण पर प्रहार कर दिया॥५
हे नगपुत्रि, तत्पश्चात् हा हा कार करते हुए सारे मुनिगण शोक और दुःख से आकुल अन्त:करण वाले हो गये॥७॥
उन्होंने विनय और क्षमाशीलता के साथ लोकेश बलराम को कहा॥८॥
हे महाबाहु! राम! हे लोक कारक अर्थात् लोकनायक राम आपने न जानते हुए की भाँति ब्रह्महत्या से भी अधिक उग्र हिंसा कर दी है। यह साक्षात् व्यास शिष्य पुराण ऋषि तथा महातपस्वी थे॥९॥
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