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पुराणनिर्माणाधिकरणम्
अथ तेषां पुराणस्य शुश्रूषा समपद्यत ।
दृष्ट्वा तमतिविश्वस्तं विद्वांसं लौमहर्षणिम् ॥१० ॥ तस्मिन् सत्रे कुलपतिः सर्वशास्त्रविशारदः। शौनको नाम मेधावी विज्ञानारण्यके गुरुः ॥ ११ ॥ इत्थं तद्भावमालम्ब्य धर्माञ्छुश्रूषुराह तम् । पित्रा सूत महाबुद्धे भगवान् ब्रह्मवित्तमः ॥१२॥ इतिहासपुराणार्थं व्यासः सम्यगुपासितः । दोहिथ मतिं तस्य त्वं पुराणाश्रयां शुभाम् ॥१३॥ अमीषां विप्रमुख्यानां पुराणं प्रति संप्रति । शुश्रूषास्ते महाबुद्धे तच्छ्रावयितुमर्हसि ॥ १४॥
सर्वे हीमे महात्मानो नानागोत्राः समागताः । स्वान् स्वानंशान् पुराणोक्ताच्छृण्वन्तु ब्रह्मवादिनः ॥ १५ ॥
अब निःसन्दिग्ध ज्ञान वाले, आत्मविश्वासी, लोमहर्षण पुत्र विद्वान् उग्रश्रवा को देखकर उनके हृदय में पुराण सुनने की इच्छा जाग्रत् हुई । उस यज्ञ में यजमान थे कुलपति महर्षि शौनक, जो सम्पूर्ण शास्त्रों के विशेषज्ञ, मेधावी तथा (वेद के ) विज्ञानमय आरण्यक भाग के आचार्य थे वे सब महर्षियों के साथ, सूत के पूर्ण आश्वस्त भाव का आश्रय लेकर धर्म सुनने की इच्छा से बोले ॥१०-११॥
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महाबुद्धिमान् सूत! आपेक पिता ने इतिहास और पुराणों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए ब्रह्मज्ञानियों में श्रेष्ठ भगवान् व्यास की भलीभाँति आराधना की है और उनकी पुराणविषयक श्रेष्ठ बुद्धि से आपने अच्छी तरह उनका लाभ उठाया है ॥ १२-१३॥
हे महामते! यहाँ जो श्रेष्ठ ब्राह्मण विराजमान हैं, ये इस समय पुराण सुनना चाहते हैं अतः आप इन्हें पुराण सुनाने की कृपा करें ॥ १४ ॥
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ये सभी श्रोता, जो यहाँ एकत्रित हुए हैं, बहुत ही श्रेष्ठ हैं । भिन्न-भिन्न गोत्रों में इनका जन्म हुआ है। ये वेदवादी ब्राह्मण अपने-अपने वंश का पौराणिक वर्णन सुनें ॥ १५ ॥
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