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पुराणनिर्माणाधिकरणम्
इत्यन्यो निबन्धः पाद्यस्य ३। ततो व्याससूतसंवादे पूर्वे संवादास्त्रयोऽपि विषयीभवन्तीत्यपरो निबन्धः ४। अथेदानीं सूतशौनकसंवादे ते चत्वारोपि प्राक्तनाः संवादा विषयीभूता इति स विलक्षण एव निबन्धः पञ्चमो य इदानीमुपलभ्यते लोमहर्षणः पद्मपुराणाख्यः स चायमेव पञ्चमसंवादसिद्धः पाद्यनिबन्धः षट्खण्डः पञ्चपञ्चाशत् सहस्रश्लोकबद्धश्च न तु पूर्वेऽपीति सुव्यक्तम्। एषां पञ्चानामपि निबन्धानामाकारप्रकारभेदेऽपि मुख्योद्दिष्टविषयैक्यानुरोधेन पाद्मसंज्ञा न विरुध्यते। इत्थमन्यदुग्रश्रवःप्रोक्तं पाद्यमादितोऽन्यसंवादपरम्परासिद्धार्थनिबद्धम् तदुक्तं तत्रैव
देवदेवो हरिर्यद्वै ब्रह्मणे प्रोक्तवान् पुरा। ब्रह्मणाभिहितं पूर्वं यावन्मानं मरीचये ॥१॥ एतदेव च वै ब्रह्मा पाझं लोके जगाद वै।
सर्वभूताश्रयं तच्च पायमित्युच्यते बुधैः॥२॥ विषय भी [थ जाते हैं यह पद्म का अन्य निबन्ध हो जाता है (३) तत्पश्चात् व्यास सूत संवाद में पूर्ववर्ती तीनों ही संवाद विषय हो जाते हैं यह अन्य निबन्ध है। (४) अब सूत शौनक संवाद में चारों ही पूर्ववर्ती संवाद विषयभूत हैं इस प्रकार वह पाँचवा विलक्षण ही निबन्ध है। (५) लोमहर्षण के पद्मपुराण के रूप में इस समय यही उपलब्ध होता है। यही पञ्चम संवाद से सिद्ध (अन्तिम रूप प्राप्त) पद्मपुराण का निबन्ध (ग्रन्थ) छः खण्डों वाला पचपन हजार श्लोकों में निबद्ध है न कि पूर्ववर्ती ५५ हजार पद्यों के हैं यह सुव्यक्त है इन पाँचों ही ग्रन्थों का आकार प्रकार का भेद होने पर भी मुख्य उदिष्ट विषय की एकता के अनुरोध से पद्म संज्ञा विरुद्ध नहीं होती है। इस प्रकार उग्रश्रवा द्वारा कथित पद्म अन्य है जो कि आदि से ही अन्य संवाद की परम्परा से सिद्ध विषय वाला है जैसा कि वहीं कहा गया है
देवों के देव हरि ने जिसे पहले ब्रह्मा को पढ़ाया और ब्रह्मा ने उसे मरीचि को कहा॥१॥
ज्यों कात्यों इसी को ब्रह्मा ने लोक में पद्म नाम से कहा (मरीचि के द्वारा यह परम्परा आगे नहीं चली अतः ब्रह्मा ने पुलस्त्य को यह पुराण दिया उनके माध्यम से यह लोक में प्रसिद्ध हुआ, इस भाव को यह पद्यार्थ बता रहा है)॥२॥
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