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पुराणनिर्माणाधिकरणम्
चिल्लोमहर्षणप्रोक्तत्वं दृश्यते तथान्येषां लोमहर्षणत्वेनाभिमतानामपि दशानां मध्यात् केषांचिदुग्रश्रवः प्रोक्तत्वं दृश्यते। यथा-लिङ्गपुराणे
दृष्ट्वातमतिविश्वस्तं विद्वांसं रोमहर्षणम्। अपृच्छंश्च ततः सूतमृषि-सर्वे तपोधनाः॥ (१ अ. १० श्लोक) कथं पूज्यो महादेवो लिङ्गमूर्तिर्महेश्वरः।
वक्तुमर्हसि चास्माकं रोमहर्षण सांप्रतम् ॥ (२५ अ. १ श्लोक) इत्येवमायुक्त्या तस्य रोमहर्षण-शौनकसंवादसिद्धत्वं लभ्यते। वायुपुराणस्यापि संबुध्यतन्नाम्नो निरुक्त्यादिना प्रशंसनाद्रोमहर्षणप्रोक्तत्वं सिद्ध्यति। एवं मत्स्यपुराणे यद्यपि लोमहर्षणोग्रश्रवसोर्नामोल्लेखो नास्ति। अथापि दीर्घसत्रान्ते प्रकथनादौग्रश्रवसत्वं विज्ञायते। पायोत्तरवचनेन लोमहर्षणप्रोक्तमात्स्यस्य यत्रारम्भतः पूर्वकालिकत्वावगमात्। अथ ब्रह्मवैवर्तं
के प्रोक्त सात पुराणों के बीच में भी कुछ लोमहर्षण के द्वारा कहे गये ज्ञात होते हैं तथा लोमहर्षण के प्रोक्त दस पुराणों के बीच में भी कुछ का उग्रश्रवा के द्वारा कथित होने का ज्ञान होता है, जैसा कि लिङ्ग पुराण में कहा है
सभी तपस्वी ऋषियों ने अत्यन्त विश्वत विद्वान् सूत रोमहर्षण को देखकर यह पूछा-हे रोमहर्षण! लिङ्ग मूर्ति महेश्वर महादेव कैसे पूज्य हैं! इस समय आप हमें यही
कहिये।
___ इस प्रकार के कथनों से लिङ्ग पुराण का रोमहर्षण शौनक संवाद रूप सिद्ध होना प्राप्त होता है। वायु पुराण में रोमहर्षण को सम्बोधित कर उसके नाम के निर्वचन से उसकी शौनकादि ऋषियों द्वारा की गयी प्रशंसा से वायुपुराण की भी रोमहर्षण प्रोक्तता सिद्ध हो रही है। मत्स्यपुराण में यद्यपि लोमहर्षण और उग्रश्रवा का नामोल्लेख नहीं है तथापि दीर्घ सत्र के अन्त में उसका प्रवचन होने के कारण वह उग्रश्रवा द्वारा प्रोक्त ज्ञात होता है जबकि पाद्योतर वचन से लोमहर्षण द्वारा प्रोक्त मत्स्य का आरम्भ से ही पूर्व कालिकत्व ज्ञात होता है। इस समय उपलब्ध होने वाले ब्रह्मवैवर्त पुराण के भी सौति शौनक संवाद के द्वारा प्रवृत्त होने से उग्रश्रवा कृत होने का अवधारण किया जाता है।
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