________________
७२
पुराणनिर्माणाधिकरणम् एकदा मुनयः सर्वे सर्वलोकहितैषिणः।
सुरम्ये नैमिषारण्ये गोष्ठी चक्रुर्मनोरमां॥ इति पुराणोपक्रमाख्यप्रकरणोपक्रान्तस्य क्रियायोगसारस्य स्वतन्त्रप्रकरणग्रन्थत्वेसम्भवेऽपि लौमहर्षणपाद्मपुराणाङ्गत्वायुक्तत्वात् प्रथमेतरखण्डेषु पुराणोपक्रमाख्यप्रकरणोपक्रमस्य पुराणलेखपरिपाटीविरुद्धत्वात्। तस्मादादिसर्गखण्डमानं लोमहर्षणप्रोक्तं पद्मपुराणं भवति। अथ सृष्टिखण्डादिपञ्चखण्डोपेतमौग्रश्रवसं पद्मपुराणं विभिन्नं भवतीतीत्थं व्याख्यातं द्रष्टव्यम्।
न चेदं पद्मपुराणं द्विविधमिति श्रुत्वा आश्चर्य्यवदालोच्यम्, कर्तृभेदेन निबन्धस्याव श्यम्भावात्। सन्ति हि अनेकनिबन्धाः प्रत्येकपुराणस्य यथा। चतुःश्लोकीभागवतमन्यत् सप्तश्लोकी भागवतमन्यत् अष्टादशसहस्रश्लोकं वा लोमहर्षणप्रोक्तं भागवतमन्यत् अष्टादशसहस्रश्लोकबद्धमौग्रश्रवसं च भागवतं नामान्यद् इतीत्थमनेकानि भागवतान्युपलभ्यन्ते एवमेवान्येषामप्यष्टादशशाखाबद्धानां पुराणानां प्रत्येकस्य तत्तत्संवादानुरोधिनो निबन्धाः
एक बार सब लोगों के हितैषी सभी मुनियों ने रमणीय नैमिषारण्य में मनोहर गोष्ठी का आयोजन किया।
. इस प्रकार पुराण के उपक्रम नामक प्रकरण के रूप में प्रारब्ध क्रियायोगसार के स्वतन्त्र प्रकरण ग्रन्थ की संभावना होने पर भी लोमहर्षण के पद्मपुराण का अङ्ग नहीं है अनुचित होने के कारण, प्रथम से भिन्न खण्डों में पुराणोपक्रम नामक प्रकरण का आरम्भ पुराण लेखन की परिपाटी के विरुद्ध है। इस कारण से आदि सर्गखण्ड मात्र ही लोमहर्षण के द्वारा कहा गया है यही उसके पद्मपुराण का रूप है। सृष्टि खण्डादि पाँच खण्डों से युक्त उग्रश्रवा का पद्मपुराण विभिन्न है। इस प्रकार दो पद्मपुराण कहे गये हैं यह जानना चाहिए।
_ यह पद्मपुराण दो प्रकार का है यह सुनकर आश्चर्य नहीं करना चाहिए क्योंकि कर्ता के भेद से ग्रन्थ भेद अवश्यम्भावी है। प्रत्येक पुराण के अनेक ग्रन्थ है जैसे (१) चार श्लोक वाला भागवत अन्य है (२) सात श्लोक वाला भागवत अन्य है (३) अठारह हजार श्लोक वाला लोमहर्षण द्वारा कथित भागवत अन्य है। (४) अठारह हजार श्लोकों में निबद्ध ही उग्रश्रवा का भागवत अन्य है, इस प्रकार अनेक भागवत उपलब्ध होते हैं। इसी प्रकार इन अठारह शाखाओं वाले पुराणों में प्रत्येक के तत् तत् संवाद के अनुरोध वाले निबन्ध पृथक् रूप से ही हुए हैं ऐसा जाना जाता है। ब्राह्म पद्म आदि विशिष्ट नाम
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org