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पुराणनिर्माणाधिकरणम्
एतदेव महापद्ममद्भुतं यन्मयं जगत् । तद्वृत्तान्ताश्रयं तस्मात्पाद्ममित्युच्यते बुधैः ॥ ९ ॥ तत्रादिखण्डं वक्ष्यामि पुण्यं पापविनाशनम् ।
इतीत्थं हि तस्योपक्रमः । तस्मान्नेदं लौमहर्षणं सर्गखण्डमौग्रश्रवसं स्वर्गखण्डं भवितुमर्हति। खण्डप्राथमिकत्वोचितमपि वा तृतीयस्थानासादनयोग्यतां धत्ते, तस्मादौग्रश्रवसं स्वर्गखण्डमतिरिक्तमेवास्तीत्यन्वेष्टव्यम् । अथैवं लोमहर्षणे पाद्येऽप्यनुपलभ्यमानानां भूमिखण्डपातालखण्डोत्तरखण्डानां सत्ता संभाव्यते । प्रतिज्ञातखण्डक्रमानुसारेण प्रथम - तृतीयपञ्चमखण्डोपलब्ध्या द्वितीय - चतुर्थ - षष्ठखण्डानामपि प्रतिपादनावश्यम्भावात् इत्याहुः । वयं तु ब्रूमः । अत्रैतेषूपलभ्यमानेषु लोमहर्षणपाद्यखण्डेषु सर्गखण्डाख्यमादिखण्डमेव लोमहर्षणप्रोक्तं प्राचीनम्। आदिखण्डमुक्त्वा केनचित्कारणेन सम्पूर्णं वक्तुमलब्धावसरेणैव तेन सम्पूर्णपाद्मश्रावणाय उग्रश्रवःप्रेषणात् न तु मध्ये मध्ये एकैकं खण्डं त्यक्त्वा तदुत्तरखण्डकथनमवकल्पते ।
यही अद्भुत महापद्म है जिससे जगत् उत्पन्न हुआ है । उस वृत्तान्त से सम्बन्धि होने के कारण विद्वानों के द्वारा यह पाद्म कहा जाता है। उस में पापों के विनाशक, पुण्य आदि खण्ड की कथा कहूँगा ॥ ९ ॥
इस प्रकार यह उसका उपक्रम है इस कारण से लोमहर्षण का सर्गखण्ड, उग्रश्रवा का स्वर्गखण्ड नहीं हो सकता । उचित खण्ड की प्राथमिकता उचित होने पर भी तृतीय स्थान की योग्यता धारण करता है इसलिए उग्रश्रवा का स्वर्गखण्ड अतिरिक्त ही है । इसका अन्वेषण करना चाहिए। इस प्रकार लोमहर्षण के पद्मपुराण में भी प्राप्त न होने वाले भूमिखण्ड, पातालखण्ड और उत्तरखण्ड की सता सम्भावित है । प्रतिज्ञात खण्ड के क्रम के अनुसार प्रथम, तृतीय, पञ्चम खण्ड की उपलब्धि से द्वितीय, चतुर्थ तथा छठा खण्डों का भी प्रतिपादन अवश्य हुआ होगा ऐसा कहते हैं। हम तो यह कहते हैं कि यहाँ इन उपलब्ध होने वाले लोमहर्षण के पद्मपुराण के खण्डों में सर्गखण्ड नाम का आदिखण्ड ही लोमहर्षण
द्वारा कथित प्राचीन है । आदिखण्ड को कहकर किसी कारण से सम्पूर्ण को कहने का अवसर प्राप्त न कर पाने से ही उसने सम्पूर्ण पद्मपुराण को सुनाने के लिए उग्रश्रवा को भेजा इससे स्पष्ट है कि बीच-बीच में एक-एक खण्ड को छोड़कर उसके उत्तरवर्ती खण्ड का कथन जचता नहीं है।
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