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पुराणनिर्माणाधिकरणम्
एतानि तु पुराणानि द्वापरान्ते श्रुतानि हि । शौनकाद्यैर्मुनिवरैर्यज्ञारम्भात् पुरैव हि ॥
इत्युक्त्या लोमहर्षणपाद्यस्य यज्ञारम्भपूर्वकालिकत्वप्रतिपादनेनैतत्खण्डस्य तदङ्गत्वासंभवात्। तस्मान्निःसन्दिग्धमेतानि औग्रश्रवसपाद्याङ्गानीति प्रतिपद्यते । अथैवमेव ग्र पाद्मे तृतीयं स्वर्गखण्डंनोपलभ्यते तत्रापि कैश्चिल्लौमहर्षणपाद्यस्यादिखण्डं सर्गखण्डाख्यया आदिसर्गखण्डाख्यया वा प्रसिद्धं प्रक्षिप्यस्थानपूर्तिं कुरुते, सर्गस्थाने च स्वर्गशब्द प्रकल्प्य स्वर्गखण्डमादिस्वर्गखण्डमिति च व्यपदेष्टुं प्रसहते तदसत् तस्य लोमहर्षणप्रोक्तत्वात् पुराणोपक्रमप्रकरणोपक्रान्तत्वाच्चौग्रश्रवसेषु पञ्चखण्डेषु तृतीयस्थान संपातानर्हत्वात्, तथाहि— एकदा मुनयः सर्वे ज्वलज्ज्वलनसंनिभाः । नैमिषं समुपायाताः शौनकं द्रष्टुमुत्सुकाः ॥ १ ॥ कथान्तेषु ततस्तेषां मुनीनां भावितात्मनाम् । आजगाम महातेजाः सूतस्तत्र महाद्युतिः ॥ २ ॥
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"ये पुराण द्वापर के अन्त में शौनक आदि मुनि वर्ग के द्वारा यज्ञ के आरम्भ होने पहले ही सुने गये थे । "
इस उक्ति के कहने से लोमहर्षण का पद्मपुराण यज्ञारम्भ से पूर्व कालिकत्व प्रतिपादित होता है। इसलिए यह खण्ड उसका ( लोमहर्षण वाला) अङ्ग नहीं हो सकता है अतः निःसन्दिग्ध रूप से यह उग्रश्रवा के पद्मपुराण - के अङ्ग हैं ऐसा ज्ञात होता है। इसी प्रकार उग्रश्रवा के पद्मपुराण में तृतीय 'स्वर्गखण्ड' उपलब्ध नहीं होता है उसमें भी कुछ विद्वानों
द्वारा लोमहर्षण के पद्मपुराण के आदिखण्ड की स्वर्गखण्ड के नाम से अथवा आदि सर्गखण्ड नाम से प्रसिद्धि कर प्रक्षेप करके स्थान पूर्ति मान ली गयी है। सर्ग के स्थान पर स्वर्ग शब्द की परिकल्पना कर स्वर्गखण्ड आदि स्वर्गखण्ड कहने का साहस करते हैं वह ठीक नहीं है क्योंकि लोमहर्षण के द्वारा प्रोक्त होने के कारण पुराणों के उपक्रम प्रकरण में उपक्रान्त होने के कारण उग्रश्रवा के पाँच खण्डों में यह तृतीय स्थान कैसे ले सकता है । जैसा कि अधोदत्त श्लोक कुलकों से ज्ञात होता है—
एक बार जलती हुई अग्नि के समान तेजस्वी सब मुनि शौनक के दर्शन करने की उत्सुकता से नैमिषारण्य में आये ॥ १ ॥
उन विशुद्ध अन्तकरणों वाले मुनियों के वार्तालाप के अन्त में महातेजस्वी महाद्युति व्यास शिष्य लोमहर्षण नामक सूत वहाँ आ पहुँचे ॥ २ ॥
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