Book Title: Puran Nirmanadhikaranam
Author(s): Madhusudan Oza, Chailsinh Rathod
Publisher: Jay Narayan Vyas Vishwavidyalay

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Page 78
________________ पुराणनिर्माणाधिकरणम् यः शृणोति नरो भक्त्या पञ्चखण्डान्यनुक्रमात् । गोप्रदानसहस्रस्य मानवो लभते फलम् ॥ ३ ॥ इत्येवं पञ्चखण्डोपादानस्य भूमिखण्डस्य पञ्चखण्डात्मकपद्मपुराणावयवत्वं बोध्यते । एवं पातालखण्डस्याप्युपक्रमे— ऋषय ऊचुः । श्रुतं सर्वं महाभाग ! स्वर्गखण्डं मनोहरम् । त्वत्तोऽधुना वदायुष्मञ् छ्रीरामचरितं हि नः ॥ १ ॥ इत्येवं पूर्वापरसंगतिप्रतिबोधके वाक्येऽस्य पातालखण्डस्य स्वर्गखण्डोत्तरत्वप्रतिपादनेनौग्रश्रवसाङ्गत्वस्य स्पष्टं प्रतीयमानत्वात् । यद्यपि लोमहर्षणे ब्रह्मखण्डमपि स्वर्गोत्तरनाम्ना व्यपदिश्यते। अथापि स्वर्गखण्डपदस्य औग्रश्रवस स्वर्गखण्डात्मकविषयलाभे दूरोपस्थिता स्वर्गोत्तरखण्डपरता नावकल्पते इति बोध्यम् । एवमुत्तरखण्डेऽप्युपक्रमे - जो मनुष्य भक्ति से पाँचों खण्डों का अनुक्रम से श्रवण करता है उस मानव को हजार गायों के दान का फल मिलता है ॥ ३ ॥ Jain Education International इस प्रकार पाँच खण्डों का उपादान बताने वाला भूमिखण्ड, पाँच खण्डों वाले पद्मपुराण के अवयव के रूप में ज्ञात होता है। इसी प्रकार पातालखण्ड के आरम्भ में भी ऐसा कथन प्राप्त है : ऋषियों ने कहा हे महाभाग ! मनोहर स्वर्गखण्ड आपसे सम्पूर्ण सुन लिया है आयुष्मन् सूत अब हमको श्रीराम का चरित बतलाये ॥ १ ॥ इस प्रकार पूर्वापर सङ्गति के प्रतिबोधक वाक्य में इस पातालखण्ड के स्वर्गखण्ड के पश्चात् प्रतिपादन से उग्रश्रवा के अङ्गत्व की स्पष्ट प्रतीति होती है यद्यपि लोमहर्षण ने ब्रह्मखण्ड को भी स्वर्गोत्तर नाम से कहा है तथापि स्वर्गखण्ड शब्द का उग्रश्रवा के स्वर्गखण्डात्मक पद की विषय प्राप्ति होने पर भी दूर उपस्थित स्वर्गोत्तर खण्डपरकता में समर्थ नहीं होती है यह भलीभाँति समझ लेना चाहिये। उत्तरखण्ड के प्रारम्भ में भी ऋषि बोले For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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