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पुराणनिर्माणाधिकरणम्
ऋषय ऊचुः। श्रुतं पातालखण्डं च त्वयाख्यातं विदांवर। नानाख्यानसमायुक्तं परमानन्ददायकम् ॥१॥ अधुना श्रोतुमिच्छामो भगवद्भक्तिवर्द्धनम्।
पाझे यच्छेषमस्तीह तब्रूहि कृपया गुरो॥२॥ इत्येवं सङ्गतिबन्धात् पातालखण्डोत्तरत्त्वेनाभिमतस्यास्योत्तरखण्डस्य लोमहर्षणे क्रियाखण्डोत्तरस्थानोचितोत्तरखण्डात्मकत्वासम्भवात्। किञ्च एतस्मिन् पाद्योतरखण्डे
कलौसहस्रमब्दानामधुना प्रगतं द्विज।
परीक्षितो जन्मकालात् समाप्तिं नीयतां मखः॥ इत्युक्त्या एतदुत्तरखण्डान्वितपाद्यस्य शौनकयज्ञावसानकालिकत्वप्रतिपादनादस्य लौमहर्षणपाद्यस्य चाभावस्य स्पष्टं प्रतिबोधितत्वात् अत्रैव खण्डे-पाद्यं वैष्णवं चेत्याधुपक्रम्य
ऋषियों ने कहा
हे विद्वत्वर्य तुम्हारे द्वारा कहा गया परम आनन्ददायक नाना आख्यानों से युक्त पातालखण्ड सुन लिया गया है॥१॥
अब पद्मपुराण में जो शेष भगवद्भक्ति वर्द्धक भाग है उसको हम सुनना चाहते हैं इसलिए हे गुरो! वह बतलाइये ॥२॥ .... इस प्रकार सङ्गतिबद्धता के कारण उग्रश्रवा के पातालखण्ड के उत्तरवर्ती रूप में अभिमत उत्तरखण्ड का लोमहर्षण के क्रियाखण्ड के उत्तर स्थान के रूप में उचित होने से पुराण की उत्तरखण्डात्मकता सम्भव नहीं है। इस पद्मपुराण के उत्तरखण्ड में
____ हे द्विज! परीक्षित् के जन्म से कलियुग के एक हजार वर्ष अब बीत गये हैं। अतः यज्ञ को पूर्ण कीजिए" ... इस उक्ति से उत्तरखण्ड से युक्त इस पद्मपुराण के शौनक यज्ञ के समाप्ति काल में कथा की निष्पत्ति के प्रतिपादन से इसका लोमहर्षण के पद्मपुराण के भाग का न होना स्पष्ट रूप से प्रपिादित हो रहा है। इसी खण्ड में पद्म और विष्णु इत्यादि का प्रारम्भ कर
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