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पुराणनिर्माणाधिकरणम्
तोषयामास मेधावी प्रणिपातेन तानृषीन् ।
चे चापि सत्रिणः प्रीताः ससदस्या महात्मने ॥ ६ ॥
ऋषय ऊचुः ।
कुतस्त्वमागतः सूत ! कस्माद्देशादिहागतः । कारणं चागमे ब्रूहि वृन्दारकसमद्युते ! ॥७॥
( उग्रश्रवाः ) सूत उवाच ।
पित्राहं तु समादिष्टो व्यासशिष्येण धीमता । शुश्रूषस्व मुनीन् गत्वा यत्ते पृच्छन्ति तद्वद ॥८ ॥
वदन्तु भगवन्तो मां कथयामि कथां तु याम् । पुराणं चेतिहासं वा धर्मानथ पृथग्विधान् ।।९ ॥
यज्ञ दीक्षित वे ऋषि भी यज्ञ सदस्यों के सहित उस महात्मा सूत पर प्रसन्न हो गए ॥ ६ ॥
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ऋषियों ने कहा—
देवताओं के समान तेजस्वी सूत ! आप कैसे (किस निमित्त से) और किस देश से यहाँ आये हैं? अपने आने का कारण बतलाइये ॥७॥
सूत ने कहा
महर्षियों! मेरे बुद्धिमान् पिता व्यास शिष्य लोमहर्षण ने मुझे यह आज्ञा दी है 'तुम मुनियों के पास जाकर उनकी सेवा शुश्रूषा में रहो और वे जो कुछ पूछें, उन्हें बताओ ॥ ८ ॥
पूजनीय ऋषियों मुझे बताइये, मैं कौन सी कथा कहूँ ? पुराण कहूँ अथवा इतिहास अथवा भिन्न-भिन्न धर्म ॥ ९ ॥
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