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पुराणनिर्माणाधिकरणम् अस्मै ह्यध्यासनं दत्तमस्माभिर्यज्ञकर्मणि। अष्टादशपुराणानां वाचकाय कृतक्षणैः ॥१०॥ तत: प्रोवाच भगवान् रामः शत्रुनिषूदनः। .. विप्राः शृणुत भद्रंवः कोपं त्यक्त्वा सुदूरतः॥११॥ अस्य पुत्रो महाज्ञानी भविष्यति वरान्मम। भवतामीप्सितं सर्व शास्त्रं वै कथयिष्यति ॥१२॥ इति श्रुत्वा वचस्ते तु रामस्य सुमहात्मनः । लौमहर्षणि माहूय सत्कृत्य नगनन्दिनि ! ॥१३॥ तत्पदे स्थापयामासुः शेषसङ्कीर्तनाय वै।
आग्नेयोत्तरमाहात्म्यं श्रीमद्भागवतान्तकम् ॥१४॥
पुराणसप्तकसार्द्ध शुश्रुवुर्लष्टमानसाः॥१५॥ इति। लोमहर्षणजीवद्दशायामपि नैकान्ततो लोहमर्षण एव प्रत्यहं श्रावयामास। किन्तु तत्रापि मध्ये मध्ये तत्पुत्रोऽयमुग्रश्रवा लोमहर्षणाज्ञया नैमिषारण्यं गत्वा यथायथमाचचक्षे एवेत्यस्मा
अठारह पुराणों के वाचक इनको हमारे द्वारा इस यज्ञकर्म में समय निकाल कर कथा हेतु यह आसन दिया गया था॥१०॥
तब शत्रुओं का वध करने वाले भगवान् बलराम ने कहा—हे ब्राह्मणो! सुनो आप अपने क्रोध को पूरी तरह त्याग दीजिए। आपका कल्याण हो॥११॥
इस लोमहर्षण का पुत्र मेरे वरदान से महाज्ञानी होगा तथा आपके वाञ्छित सारे शास्त्रों का कथन करेगा॥१२॥
महात्मा बलराम के इस वचन को सुनकर हे पार्वति ! उन्होंने लोमहर्षण के पुत्र को बुलाकर सत्कारपूर्वक शेष कथा कहने के लिए उस अध्यासन पर स्थापित किया॥१३-१४॥ ____ तथा प्रसन्न हो आग्नेय के उत्तर भाग के माहात्म्य से लेकर श्रीमद्भागवत के अन्त तक साढ़े सात पुराणों का श्रवण किया॥१५॥
लोमहर्षण (की जीवित अवस्था ने अपने जीवनकाल) में एकमात्र स्वयं ही सदैव पुराणों का श्रवण नहीं कराया किन्तु उस समय भी बीच-बीच में उसके पुत्र इस उग्रश्रवा
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