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पुराणनिर्माणाधिकरणम्
संपूर्णे दीर्घसत्रेऽस्मिंस्तांस्त्वं श्रावय वै मुनीन् । पाद्मं पुराणं सर्वेषां कथयस्व महामते ॥ १६ ॥
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कथं पद्मं समुद्भूतं ब्रह्मा तत्र कथंन्वभूत् । प्रोद्भूतेन कथं सृष्टिः कृता, तां तु तथा वद ॥ १७ ॥
एवं पृष्टस्ततस्ताँस्तु प्रत्युवाच शुभां गिरम् । सूक्ष्मं च न्यायसंयुक्तं प्राब्रवीद्रौमहर्षणिः ॥ १८ ॥
तद्भिर्दृष्टः सनातनः ।
धर्म देवतानामृषीणां च राज्ञां चामिततेजसाम् ॥ १९ ॥ वंशानां धारणं कार्य्यं स्तुतीनां च महात्मनाम् । न हि वेदेष्वधीकारः कश्चित् सूतस्य दृश्यते ॥ २० ॥
येऽत्र क्षत्रात् समभवन् ब्राह्मण्याश्चैव योनितः । पूर्वेणैव तु साधर्म्याद्वैधर्मास्ते प्रकीर्तिताः ॥ २१ ॥
इस दीर्घकालीन यज्ञ के पूर्ण होने तक आप मुनियों को पुराण सुनाइये । महाप्राज्ञ ! आप इन सब लोगों को पद्मपुराण की कथा कहिये ॥ १६ ॥
पद्म की उत्पत्ति कैसे हुई उससे ब्रह्माजी का आविर्भाव किस प्रकार हुआ तथा कमल से प्रकट हुए ब्रह्मा ने किस तरह जगत् की सृष्टि की— ये सब बातें बताइये ॥१७॥ उनके इस प्रकार पूछने पर लोमहर्षण - कुमार सूत ने सुन्दर वाणी में सूक्ष्म अर्थ भरा हुआ न्याययुक्त वचन कहा- ॥१८॥
(पुरातन) विद्वानों की दृष्टि में सूत का सनातन स्वधर्म यही है कि वह देवताओं, ऋषियों तथा अमित तेजस्वी राजाओं की पठित वंश परम्परा को धारण करे उसे याद रखे, इतिहास और पुराणों में जिन ब्रह्मवादी महात्माओं का वर्णन किया गया है ॥ १९ ॥
सूता वेदों पर कार्य का कोई अधिकार नहीं है अर्थात् वेद पढ़कर उसका लोक में व्याख्या पूर्वक प्रचार- प्रसार का दायित्व सूत का नहीं है ॥२०॥
जो ब्राह्मणी योनि (ब्राह्मण वर्ण की माता) से क्षत्र (क्षत्रिय पिता ) से उत्पन्न होते हैं, वे पूर्व अर्थात् क्षत्र के साधर्म्य के कारण एक नियतधर्म के अभाव वाले होते हैं अर्थात् विविध अनेक धर्माधिकार वाले कहे गये हैं ॥ २१ ॥
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