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पुराणनिर्माणाधिकरणम्
काश्यपः संहिताकर्त्ता सावर्णिः शांशपायनः ।
मामिका च चतुर्थी स्यात् सा चैषा पूर्वसंहिता ॥ ४ ॥ ५८ सर्वास्ता हि चतुष्पादाः सर्वाश्चैकार्थवाचिकाः । पाठान्तरे पृथग्भूता वेदशाखा यथा तथा ॥५ ॥ चतुःसाहस्रिकाः सर्वाः शांशपायनिकामृते । ५९ लौमहर्षणिकामूलास्ततः काश्यपिकाः पराः ॥ ६ ॥ सावर्णिका स्तृतीयास्ता यजुर्वाक्यार्थपण्डिताः । ६० शांशपायनिकाश्चान्या नोदनार्थविभूषिताः ॥७ ॥
तदित्थं वेदव्यासकृतानां होत्रुद्गात्रध्वर्य्यथर्वणिकर्मानुरोधिनीनां चतसृणां याज्ञियकर्मसहितानां पैलजैमिनिवैशम्पायनसुमन्त्वात्मक - शिष्य - प्रशिष्य-प्रणालीभेदेन यथा काले कालेऽनेकाःशाखाः समभूवन् तथैव वेदव्यासकृतायाः स्त्रीशूद्रद्विजबन्ध्वादि सामान्यविधेया
संहिताकर्ता काश्यप, सावर्णि और शांशपायन के नाम से प्रसिद्ध है। चौथी संहिता मेरी है जो यह पूर्व संहिता है ॥ ४ ॥
ये सभी चारों संहिताएँ चार-चार पादों वाली एवं समान विषय की वाचिका है। वेद शाखाओं की भाँति केवल पाठान्तर में भिन्न-भिन्न है ॥५ ॥
शांशपायन की संहिता को छोड़कर इन सबकी संख्या चार-चार सहस्र पद्यों की है। इन समस्त पुराण वेद संहिताओं का मूल लोमहर्षण की संहिता ही है, उसके बाद दूसरी संहिता काश्यप की है ॥ ६ ॥
सावर्णिक संहिता का तृतीय स्थान है, जो यजुर्वेद की वाक्यावलि से मण्डित हैं इसके अतिरिक्त जो शांशपायन की संहिता है वह प्रेरणात्मक अर्थ से अर्थात् विधिवाक्यों विभूषित है ॥७॥ (वायुपुराण, अध्याय ६१ / ५५-६१ ) इस प्रकार वेदव्यास द्वारा कृत होता, उद्गाता अध्वर्यु तथा अथर्वणिक कर्मों के अनुरोध वाली चारों यज्ञीय कर्म संहिता के पैल, जैमिनि, वैशम्पायन तथा सुमन्तु के शिष्यों-प्रशिष्यों की परम्परा के भेद से समय-समय पर अनेक शाखाएँ हुई। उसी प्रकार वेद व्यास के द्वारा कृत स्त्री, शूद्र, द्विज, बन्धु आदि सामान्य व्यक्तियों के अनुरोध वाली
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