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पुराणनिर्माणाधिकरणम्
बाद) कह कर राम की गणना की गयी है तथा इसके पश्चात् बलराम और कृष्ण को १९, २० वाँ बताया गया है। स्पष्ट है कि भगवान् राम १८ वें प्रमाणित होते हैं।
केवल 'व्यास' नाम होता तो भी ठीक था, भगवान राम के पूर्व २३ व्यास हो चुके थे, २४वें व्यास भगवान् वाल्मीकि ने राम का चरित ही नहीं गाया अपितु वे भगवती सीता के आश्रयदाता, संरक्षक, रहे तथा रामपुत्रों लवकुश के संस्कार गुरु भी थे। इन वाल्मीकि व्यास से ही शक्ति को व्यासाधिकार परम्परा में व्यासत्व की दीक्षा मिली। शक्ति भगवान् वसिष्ठ के पुत्र, पराशर के तथा जातुकर्ण्य के पिता एवम् कृष्ण द्वैपायन के पितामह थे। जातुकर्ण्य कृष्ण द्वैपायन के पितृव्य (चाचा) थे साथ ही दीक्षागुरु भी।
पराशर विष्णु पुराण में कहते हैंऋक्षोऽभूद् भार्गव स्तस्माद् वाल्मीकिर्योऽभिधीयते। ३.३.१६ तस्मादस्मत् पिताशक्ति ासस्तस्मादहं मुने। जातुकर्णोऽभवन्मत्तः कृष्णद्वैपायन स्ततः॥१७ .
अष्टाविंशतिरित्येते वेदव्यासाः पुरातनाः ।...१८
यहाँ पुरातन व्यासों के क्रम-पूर्वक कथन के साथ अन्त में २८वीं संख्या कृष्णद्वैपायन के नाम बतायी गयी है, अतः २७वें जातुकर्ण २६वें पराशर, २५वें शक्ति तथा २४वें वाल्मीकि होते हैं। वाल्मीकि पिता के नाम वल्मीक के आधार पर है, निजी नाम 'ऋक्ष'
यह गणना वायु ब्रह्माण्ड आदि पुराणों में अनेकधा है। ऐसी स्थिति में इस इतिहास के अकारण विरोध में जाकर क्या कहना चाहते हैं। व्यास होते तो ये भी राम के पूर्व में सिद्ध किये जा सकते थे पर ये सत्यवतीनन्दन भी हैं जो सत्यवती विचित्रवीर्य तथा चित्राङ्गद की जननी एवं धृतराष्ट्र पाण्डु विदुर की दादी है। इन्हें दाशरथि राम के पूर्व कैसे ले जाया जा सकता है।
त्रयी (वेद) जिन्हें श्रुतिगोचर नहीं हो सकता है उन स्त्रियों, शूद्रों तथा द्विजबन्धुओं के (अर्थात् नाममात्र के द्विज ब्राह्मण क्षत्रिय तथा वैश्यों) के श्रेय (परम कल्याण मुक्ति) के लिए कृपालु व्यास ने भारत की रचना की (१.४.२५) तथा भारत के नाम से आम्नाय (वेद तथा वैदिक परम्परा) का रहस्य प्रस्तुत किया (२८) वे व्यास अशान्त थे। उनके मन में आया कि मैंने अच्युत के प्रिय भागवत धर्मों का कथन नहीं किया, सम्भवतः यही अशान्ति का कारण हो। दैवयोग से नारद वहाँ आ जाते हैं, व्यास के कष्ट को सुनकर वे भी यही कहते हैं
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