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पुराणनिर्माणाधिकरणम् जिससे उत्पत्ति हुई है वह पुराण कहा गया है तथा इस पुराण के स्वरूप को बताने वाला वाचिक व्यवहार भी पुराण ही है। पुराण को यहाँ स्पष्ट ही 'भूतप्रकृति' कहा गया
ऋक्सामसंघाँश्च यजूंषि चापि
__ च्छन्दांसि नक्षत्रगतिं निरुक्तम्। अधीत्यव्याकरणं सकल्पं
शिक्षां च भूतप्रकृतिं न वेद्भि॥ २०१.८ ऋचाएँ, साम, यजुः तथा आथर्वण मन्त्र, छन्द, ज्योतिष निरुक्त, व्याकरण, कल्प तथा शिक्षा का अर्थात् वेदाङ्गों सहित वेदों का अध्ययन करके भी 'भूतप्रकृति' अर्थात् भूत के मूल उस परमेश को नहीं जानता हूँ। भूत-समूह को भी इसी प्रसङ्ग में गिनाया गया है
पुरुषः प्रकृति र्बुद्धि विषयाश्चेन्द्रियाणि च।
अहङ्कारोऽभिमानश्च समूहो भूत्तसंज्ञकः॥ २०५/६
पुरुष, प्रकृति, बुद्धि, विषय (५), इन्द्रियाँ (१०) अहङ्कार और अभिमान, यह समूह भूत नाम वाला है।
इस.प्रकार के वचनों को न तो पुराणमूलक कहकर मिथ्या कहा जा सकता है और न अर्थवाद गर्भित प्ररोचना प्रधान पौराणिक कथन ही। स्वयं वेद ही इस भूत प्रकृति को पुराण कहता है.. येत आसीद् भूमिः पूर्वा यामद्धातय इद् विदुः। ___ यो वै तां विद्यान्नामथा समन्येत पुराणवित्॥ अथर्व ११.८.७
मन्यु सूक्त के इस मन्त्र में कहा गया है कि इस पुरोवर्तमान जगत् की इससे दृश्यमानरूप से पूर्व वाली प्रकृति (कारण) भूत जो भूमि रही है, जिसका बोध केवल तत्त्वदर्शी मेधावियों को ही होता है, जो कोई नाम पूर्वक उस भूमि को जानता है, वह पुराणवेत्ता माना जाता है।
यद् भवति निष्ठामापद्यते, तद् भूतम्जगत्, भवति सर्वमत्रास्यांवेति भूमिः प्रकृतिः, यह भूतभूमि पुराण, इसका ज्ञाता पुराणवित्, यह सार है।
यह भूमि अथर्ववेद के ही स्कम्भसूक्त के एक मन्त्र में उस परा सत्ता स्कम्भ का एक अङ्ग कही गयी है, इस पुराण का विवर्तन ही यह सर्ग है
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